
बारिश की वह शाम
कुछ झुंझलाकर तो कुछ खिसाया कर मैंने हाथ में पकड़े एक पैन को झटक दिया। माथे पर पड़ी सिलवटों को हटाते हुए मैंने
चली गई बत्ती को कोसा | शायद वह चिड़चिड़ाहट न लिख पाने की थी। मैंने गहरी साँस ली और माँ को पुकारा कोई जवाब
न मिलने पर याद आया की माँ तो किसी रिश्तेदार के यहाँ गई हैं पिता जी के साथ। फिर दूर तक छाए उस अंधकार को
ताकते हुए न जाने किन ख्यालों में खो गई। गहम! गड़म ! गडागड़! की आवाज से मेरी नौका विचारों के सागर से किनारे पर आ गई। कदमों की चाल को तेज करते हुए मैं खिड़की के पास पहुँची । सिंदूरी रंग का आसमान और बारिश की नन्ही-नन्ही बूँदों ने मन को शांति प्रदान करदी। गेट खोल मैं बाहर बैठी की चेहरे को छूती ठंडी ठंडी हवा और मिट्टी की धीमी-धीमी खुशबू ने मुझे ख़ुद में समान किया। तभी मेरी नज़र एक नन्हें से पौधे पर गई जिस पर जैसे ही बूँद गिरती वह झुक जाता परंतु वापस सेना के उस सिपाही की तरह खड़ा हो उठता जिस पर इस समय देश को बचाने की सारी जिम्मेदारी है। होठों पर मंद सी एक मुस्कान आ गई इस बहादुर सिपाही को देखकर । बूँदों की टप की आवाज़ ऐसी मालूम पड़ती जैसे किसी ने कानों में स्वरों की मीठी झंकार छेड़ दी हो।तभी कानों में किसी की खिलखिलाके हसने की आवाज़ आई उस और देखा तो पाया की दो लड़कियाँ जो की बहने हैं बारिश में भीगती हुई आर रही हैं । मैंने उन्हें पहले भी देखा है परंतु तब वह अपनी माँ के साथ मेरे घर के पास वाले घर में आती थी। उनकी माँ वहाँ काम करती हैं । इस समय लड़कियाँ अपने विद्यालय के वस्त्र पहने हुए थीं । उनके चहरे पर जो निश्चल हँसी थी वह सदेव ऐसी ही रहती थी। दोनों के चेहरे पर संतोष, खुशी और पूर्णता झलक रही थी। जब होठ के दोनों कोने उठते और सफेद संगमरमरी मोती दिखते तो प्रतीत होता मानो यह व्यंगात्मक मुस्कान कह रही हो देखो मैं तो अधूरी हूँ फिर भी पूरी हूँ। मैं फिर विचारों की डगर पर चल पड़ी । अचानक खड़ी हुई और घर में घुस गई मोमबत्ती निकाली और जलाई कागज निकाला और शीर्षक डाला मुस्कान: एक सीख ।
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