
मैंने बचपन में कभी जी थी
अपने हिस्से की ज़िंदगी
जैसे-जैसे बड़ी होने लगी
जैसे जिंदगी कई टुकड़ों में बंटने लगी
लड़की थी इसलिए
थोड़ी लाज शर्म के पास चली गई
कॉलेज गई तो पढ़ाई ने थोड़ी ले ली
शादी हुई तो ज़िंदगी के जैसे
टुकड़े ही कम पड़ने लगे
समझ ही नहीं आता कि
मेरा सबसे बड़ा टुकड़ा
किसके हिस्से में आया
पति के ,सास-ससुर के,
बच्चे के या जिम्मेदारियों के
नौकरी मैं नहीं करती हूँ
मेरे टूटे सपने करते हैं
जिनसे मैं बनी थी कभी
वे सपने जिसे पूरा करने के लिए
मेरे पास कुछ अधूरे सिद्धांत थे
आधा - अधूरा ज्ञान था
मंजिल का तो पता था
पर राहों से मन अनजान था
काश !
मैंने खुदको समेट रखा होता
अपने भीतर
तो मैं देख पाती अपना वजूद
अपने अस्तित्व को
अब तो लगता है जैसे
मेरी आँखें ,कान, हाथ-पैर
के साथ -साथ मेरी सोच
समझ , दिल -दिमाग
सब के सब कई टुकड़ों में
बिखर चुके हैं
मैं खुदको इकठ्ठा भी करूँ तो
कहाँ से ??????
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