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कुछ बनने के लिए
पहले जो हूँ उसमें से
कुछ तोड़ना
कुछ बिगाड़ना
कुछ बदलना
कुछ मिटाना
पड़ता है मुझे
तब जाकर थोड़ा -थोड़ा
हर रोज बनती हूँ
जब -जब कोशिश की कि-
बिना कुछ बिगाड़े ही
कुछ मिटाए ही बन जाऊँ मैं
तब-तब मैं बढ़ती तो गई
पर बन नहीं पाई
तब-तब मुझमें बढ़ता गया
अनचाही यादों का वजन
गैर ज़रूरी दुखों का बोझ
पुराने पड़े हुए
ज्ञान के पुलिंदों का ढेर
सड़े-गले विचारों का कचरा
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