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संकोच नहीं विचार

गणेश मिश्रागणेश मिश्रा March 17, 2023
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हो गया क्या? क्या छीन गया?
फिर क्यों मैं इतना झीम गया?
ठीक है भीतर ही जीत गई वो ,
बाहर पहरा बड़ा गहरा है।

भीतर जितना भार लगे , 
बाहर एक सुर एक ताल रहे ,
छाया और काया एक नहीं ,
छाया में बहना प्रेम नहीं।

खोखला रहे और रहे गलन ,
कितना चले ये मलयपवन ,
मैं कितना दिन से बिछड़ा हूं ,
क्या पता अब मैं क्या हूं।

पर जो भी हूं ,
मैं नहीं जानता अब तुझे ,
लेकिन तेरा हूं।

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