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पुस्तक समीक्षा: “लज्जा”
लेखक: तस्लीमा नसरीन
हिन्दी अनुवाद: मुनमुन सरकार
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पेज: 183
ISBN: 978-93-5229-183-0
कुछ कहानियां पढ़ते हुए हमे लगता है कि ये कहानी नही होना चाहिए थे। लज्जा भी उन्हीं किसी कहानी में से एक है। जिसे पढ़ते हुए दिल अंदर से कचोटता है कि काश ये कहानी घटित ही नहीं होती। इसके हर किरदार झूठे होते, काश इस कहानी का सच्चाई से कोई लगाव न हो तो बेहतर होता। लेकिन लज्जा की लेखिका इस कहानी को बिलकुल भी काल्पनिक नही कहती हैं।
इस कहानी का मुख्य किरदार एक परिवार है। डॉ० सुधामय दत्त परिवार का मुखिया, उसकी पत्नी किरणमयी दत्त, उसका एक जवान पढ़ा लिखा और बेरोज़गार बेटा है सुरंजन दत्त, एक बेटी है निलंजना दत्त।
एक ऐसा परिवार जो भवन में विश्वास नहीं रखता। घर में कोई पूजा पाठ नही होती। सबको एक बराबर समझने वाले परिवार पर तब आफत आन पड़ती है जब उन्हें अपने घर को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
घर क्यों छोड़ना पड़ रहा है? यही असल सवाल है। एक ऐसा जिसमे मनोरम हमेशा उलझा रहता है। उसका पिता जिसने 71 में बांग्ला देश के लिए लड़ाई किया। क्रांतिकारियों में शामिल रहा और इसे अपना देश मानता है।
लेखिका ने पुरी किताब में बहुसंख्यक और अल्प संख्यक पर ज़ोर दिया है। साथ ही ऐसे नामों पर ज़ोर दिया है जिसके कारण से एक मनुष्य के समुदाय का बोध होता है। ऐसे आंकड़े लिखे गए हैं जो बांग्लादेश की सरकार की आलोचना करते हैं और साथ ही मुस्लिम समुदाय की आलोचना करते हैं।
हिंदुस्तान में 6 दिसम्बर 1992 ई० को अयोध्या में 450वर्ष पुरानी एक मस्ज़िद को जमींदोज कर दिया। लेखिका ने लिखा की ये सब भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिन्दू परिषद, आर० एस० एस० और बजरंग दल के सर्वोच्च नेताओं की मजूदगी में हुआ। केंद्रीय सुरक्षा वाहिनी, पी० ए० सी० और उत्तर प्रदेश पुलिस निष्क्रिय खड़ी होकर देखती रही।
हिंदुस्तानी बहुसंख्यकों ने मिलकर अल्पसंख्यकों के एक साढ़े चार सौ साल पुरानी इबादतगाह को गिरा दिया। जिसकी आग पूरे एशिया और पूरी दुनिया में फैल गई। हिंदुस्तान से लेकर बांग्लादेश तक इस क्रूरता का असर पहुंचा और फिर जो हिंदुस्तान के बहुसंख्यकों में यहां के अल्पसंख्यकों के साथ क्रूरता किया वही क्रूरता बांग्लादेश के बहुसंख्यकों ने वहां के अल्पसंख्यकों के साथ किया। दोनो देशों की सरकार मूर्ति बनी रही। बल्कि इन सब दंगों में उनका भी कहीं न कहीं हाथ था।
मजहबी उन्माद से पैदा हुए आग पर अपनी रोटी सेंकने वाले सबसे आगे सयासतदान ही होते हैं और उन्हें इंसानियत से अधिक अपनी कुर्सी की पड़ी रहती है।
इसी तरह से कहानी आगे बढ़ती है, जिसमे लेखिका ने वहां के दंगे की कारण से लोगों की मृत्यु, घायल और घरों को छोड़ने के सब आंकड़े इस किताब में शामिल भी किया है।
इन दंगों के बीच में सुरंजन का एक मुस्लिम लड़की के प्रेम है और वहीं उसकी बहन निलांजना का एक मुस्लिम लड़के से प्रेम भी दिखाया गया है जो की परिवार में सबको पता है लेकिन दंगे शुरू होने के बाद घर में सबको इस बात की चिंता है कि कहीं अपनी जान बचाने के लिए घर की सबसे प्यारी और दुलारी अपना धर्म परिवर्तन न कर ले।
एक दिन आता है जब सुरंजन की बहन निलांजना को कुछ लोग उठाकर ले जाते हैं। कौन? पता नही। क्यों? पता नही।
बल्कि ये सबको पता था कि कौन ले गए और क्यों ले गए। कुछ दिनों बाद पता चला कि पास के ही एक तालाब में एक जवान लड़की की लाश मिली है, उसके कपड़े फटे हुए हैं, संभवतः उसके साथ बलात्कार हुआ है और वो लाश निलांजना की ही है। लेकिन ये सब जानते हुए भी सुरंजन, उसका पिता सुधामय और मां किरणमयी बिलकुल अनजान अपने अपने काम में लगे रहते हैं।
अपनी बहन के बलात्कार के बदले के लिए सुरंजन एक दिन एक वैश्या के पास जाता है। पहले उसका नाम पूछकर उसका समुदाय जनता है फिर उसे अपने घर लेकर आता है। उसके साथ ऐसी शारीरिक संबंध बनाता है जैसे वो पूरे समुदाय से बदला लेने के लिए उसका बलात्कार कर रहा हो।
कहानी और भी आगे बढ़ती है। इसमें सुरंजन और सुधामय का देश प्रेम और देश के लिए त्याग; सब कुछ देखने को मिलता है। प्रेम है, धोका है, ज़िद है, बेरोज़गारी के साथ साथ सपने भी है। और भी रिश्तों की बंदिशें और उन बंदिशों की आजादी भी।
क्या होता है, सुधामय का? क्या करती है किरणमयी? इसके परिवार के लिए क्या क्या त्याग है। एक सामाजिक और देश प्रेमी इंसान से कैसे वहशी बन गया सूरंजन। ये किताब एक बार पूरी पढ़ेंगे तो मज़हब और मजहब की ओट में छुपकर किए जाने वाले गुनाह भी खुलकर सामने आते हैं और अपने फायदे के लिए सरकार उन गुनहगारों के सहयोग में भी दिखती है।
एक बार अवश्य पढ़ें। आप पुस्तक यहां से प्राप्त कर सकते हैं: https://amzn.to/3BSOA9w
लेखक: तस्लीमा नसरीन
हिन्दी अनुवाद: मुनमुन सरकार
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पेज: 183
ISBN: 978-93-5229-183-0
कुछ कहानियां पढ़ते हुए हमे लगता है कि ये कहानी नही होना चाहिए थे। लज्जा भी उन्हीं किसी कहानी में से एक है। जिसे पढ़ते हुए दिल अंदर से कचोटता है कि काश ये कहानी घटित ही नहीं होती। इसके हर किरदार झूठे होते, काश इस कहानी का सच्चाई से कोई लगाव न हो तो बेहतर होता। लेकिन लज्जा की लेखिका इस कहानी को बिलकुल भी काल्पनिक नही कहती हैं।
इस कहानी का मुख्य किरदार एक परिवार है। डॉ० सुधामय दत्त परिवार का मुखिया, उसकी पत्नी किरणमयी दत्त, उसका एक जवान पढ़ा लिखा और बेरोज़गार बेटा है सुरंजन दत्त, एक बेटी है निलंजना दत्त।
एक ऐसा परिवार जो भवन में विश्वास नहीं रखता। घर में कोई पूजा पाठ नही होती। सबको एक बराबर समझने वाले परिवार पर तब आफत आन पड़ती है जब उन्हें अपने घर को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
घर क्यों छोड़ना पड़ रहा है? यही असल सवाल है। एक ऐसा जिसमे मनोरम हमेशा उलझा रहता है। उसका पिता जिसने 71 में बांग्ला देश के लिए लड़ाई किया। क्रांतिकारियों में शामिल रहा और इसे अपना देश मानता है।
लेखिका ने पुरी किताब में बहुसंख्यक और अल्प संख्यक पर ज़ोर दिया है। साथ ही ऐसे नामों पर ज़ोर दिया है जिसके कारण से एक मनुष्य के समुदाय का बोध होता है। ऐसे आंकड़े लिखे गए हैं जो बांग्लादेश की सरकार की आलोचना करते हैं और साथ ही मुस्लिम समुदाय की आलोचना करते हैं।
हिंदुस्तान में 6 दिसम्बर 1992 ई० को अयोध्या में 450वर्ष पुरानी एक मस्ज़िद को जमींदोज कर दिया। लेखिका ने लिखा की ये सब भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिन्दू परिषद, आर० एस० एस० और बजरंग दल के सर्वोच्च नेताओं की मजूदगी में हुआ। केंद्रीय सुरक्षा वाहिनी, पी० ए० सी० और उत्तर प्रदेश पुलिस निष्क्रिय खड़ी होकर देखती रही।
हिंदुस्तानी बहुसंख्यकों ने मिलकर अल्पसंख्यकों के एक साढ़े चार सौ साल पुरानी इबादतगाह को गिरा दिया। जिसकी आग पूरे एशिया और पूरी दुनिया में फैल गई। हिंदुस्तान से लेकर बांग्लादेश तक इस क्रूरता का असर पहुंचा और फिर जो हिंदुस्तान के बहुसंख्यकों में यहां के अल्पसंख्यकों के साथ क्रूरता किया वही क्रूरता बांग्लादेश के बहुसंख्यकों ने वहां के अल्पसंख्यकों के साथ किया। दोनो देशों की सरकार मूर्ति बनी रही। बल्कि इन सब दंगों में उनका भी कहीं न कहीं हाथ था।
मजहबी उन्माद से पैदा हुए आग पर अपनी रोटी सेंकने वाले सबसे आगे सयासतदान ही होते हैं और उन्हें इंसानियत से अधिक अपनी कुर्सी की पड़ी रहती है।
इसी तरह से कहानी आगे बढ़ती है, जिसमे लेखिका ने वहां के दंगे की कारण से लोगों की मृत्यु, घायल और घरों को छोड़ने के सब आंकड़े इस किताब में शामिल भी किया है।
इन दंगों के बीच में सुरंजन का एक मुस्लिम लड़की के प्रेम है और वहीं उसकी बहन निलांजना का एक मुस्लिम लड़के से प्रेम भी दिखाया गया है जो की परिवार में सबको पता है लेकिन दंगे शुरू होने के बाद घर में सबको इस बात की चिंता है कि कहीं अपनी जान बचाने के लिए घर की सबसे प्यारी और दुलारी अपना धर्म परिवर्तन न कर ले।
एक दिन आता है जब सुरंजन की बहन निलांजना को कुछ लोग उठाकर ले जाते हैं। कौन? पता नही। क्यों? पता नही।
बल्कि ये सबको पता था कि कौन ले गए और क्यों ले गए। कुछ दिनों बाद पता चला कि पास के ही एक तालाब में एक जवान लड़की की लाश मिली है, उसके कपड़े फटे हुए हैं, संभवतः उसके साथ बलात्कार हुआ है और वो लाश निलांजना की ही है। लेकिन ये सब जानते हुए भी सुरंजन, उसका पिता सुधामय और मां किरणमयी बिलकुल अनजान अपने अपने काम में लगे रहते हैं।
अपनी बहन के बलात्कार के बदले के लिए सुरंजन एक दिन एक वैश्या के पास जाता है। पहले उसका नाम पूछकर उसका समुदाय जनता है फिर उसे अपने घर लेकर आता है। उसके साथ ऐसी शारीरिक संबंध बनाता है जैसे वो पूरे समुदाय से बदला लेने के लिए उसका बलात्कार कर रहा हो।
कहानी और भी आगे बढ़ती है। इसमें सुरंजन और सुधामय का देश प्रेम और देश के लिए त्याग; सब कुछ देखने को मिलता है। प्रेम है, धोका है, ज़िद है, बेरोज़गारी के साथ साथ सपने भी है। और भी रिश्तों की बंदिशें और उन बंदिशों की आजादी भी।
क्या होता है, सुधामय का? क्या करती है किरणमयी? इसके परिवार के लिए क्या क्या त्याग है। एक सामाजिक और देश प्रेमी इंसान से कैसे वहशी बन गया सूरंजन। ये किताब एक बार पूरी पढ़ेंगे तो मज़हब और मजहब की ओट में छुपकर किए जाने वाले गुनाह भी खुलकर सामने आते हैं और अपने फायदे के लिए सरकार उन गुनहगारों के सहयोग में भी दिखती है।
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