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कृतज्ञ था केवल, मूक न मानो मुझे मेरे मौन से,
क्यों तिलक किया बृहनल्ला का, मेरे ही शोण से,
पूछता है एकलव्य आज द्रोण से।
पद पिता का भारी, मेरी क्षमता और विद्या गौण थे,
शिष्यों से छल कर, गुरु कहलाने वाले तुम कौन थे,
पूछता है एकलव्य आज द्रोण से।
पक्षपात कर, सपने व भविष्य छीना एक तरुण से
संशय था अपनी विद्या पर, या कौंतेय कम प्रौण थे,
पूछता है एकलव्य आज द्रोण से।
क्यों विचलित थे अर्जुन सर्वश्रेष्ठ न होगा इस भान से,
क्या दो सिंह–शावक नही विचरते, एक ही उद्यान में,
पूछता है एकलव्य आज
क्यों तिलक किया बृहनल्ला का, मेरे ही शोण से,
पूछता है एकलव्य आज द्रोण से।
पद पिता का भारी, मेरी क्षमता और विद्या गौण थे,
शिष्यों से छल कर, गुरु कहलाने वाले तुम कौन थे,
पूछता है एकलव्य आज द्रोण से।
पक्षपात कर, सपने व भविष्य छीना एक तरुण से
संशय था अपनी विद्या पर, या कौंतेय कम प्रौण थे,
पूछता है एकलव्य आज द्रोण से।
क्यों विचलित थे अर्जुन सर्वश्रेष्ठ न होगा इस भान से,
क्या दो सिंह–शावक नही विचरते, एक ही उद्यान में,
पूछता है एकलव्य आज
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