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क़लम अब रुक गई है, उंगलियां भी थक गई शायद....
लफ्ज़ अंगड़ाइयाँ लेने लगीं हैँ, ख्वाहिशेँ भी बहक गई शायद....
दिल ये न जाने क्यूँ कुलांचे भर रहा है....
हाय.... ये तो याद तुझको कर रहा है....
ख़ुद पे अब काबू नहीं है ज़रा भी.... क्या करूँ मजबूर होता जा रहा हूँ....
ख़ुद को तुझसे दूर कर देने की कोशिश में, ख़ुद ही ख़ुद से दूर होता जा रहा हूँ....
मैं ग़र मिलने बुलाऊं.... मत चली आना बुलावे से .....
बहक जाना नहीं तुम.... मेरे कोई भी दिखावे से....
पर.... मेरा दिल ग़र मचल जाए तो मुझको माफ़ कर देना....
मेरी नीयत बदल जाए तो मुझको माफ़ कर देना....
पकड़ लूँ हाथ तेरा.... रोक देना तुम वहीँ मुझको....
कमर पर उंगलियां हों.... टोंक देना तुम वहीँ मुझको....
नहीं नज़दीक आना.... खींच कर बाँहों में ले लूंगा....
सम्हल जाना.... नहीं तो इश्क के मैं घाव दे दूंगा....
मेरी कुछ गर्म साँसे.... तन बदन पर वार ना कर दें ....
तुझे गर्दन पे मेरा चूमना बेज़ार ना कर दे....
मैं इसके बाद अपने आप को ना रोक पाऊंगा....
मैं बे-हद हो गया तो हद के भी उस पार जाऊँगा....
इससे पहले के अपने होंठ... होठों से लगा दूँ....
तेरे सोये हुए सब आरज़ू.... को मैं जगा दूँ.....
मुझे तुम टोक देना.... रोक लेना.... दूर कर देना.....
खुदा का वास्ता देकर मुझे मजबूर कर देना.....
रोका ना तो हर रंग को खुशरंग कर दूंगा.....
ज़माने भर की तड़पन को तेरे सीने में भर दूंगा....
तुझे बेपर्दा करके ..... मैं तो जी भर-भर के देखूंगा....
चूम लूंगा हर इक अंग को.... ना ख़ुद को रोकूंगा....
ग़ज़ल पूरी करूँ.... या फाड़ दूँ इस डायरी को....
बता किस ओर ले जाऊं मैं अपनी शायरी को....
रहूँ मैं हद में या फिर कैद कर ले अपनी बाँहों में....
मुझे तू दूर कर दे.... या बुला अपनी पनाहों में....
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