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रोटी का इक टुकड़ा लिए,
भाग रहे थे, श्वान महोदय!
डंडा लिए पीछे, था इंसान,
डर उससे भाग रहे थे श्वान!
मारा डंडा जा लगा श्वान के,
मुख से टुकड़ा गिरा श्वान के!
श्वान चिल्लाते भाग गया था,
यूँ मार खा के भाग गया था!
तभी रोटी का जो वो टुकड़ा,
था ताक रहा उसको मुखड़ा!
नन्हें से हाथ बढ़े उसे उठाने,
नन्हा मुख खुला टुकड़ा खाने!
न सोचा कि ये टुकड़ा जूठा है,
बचपन ये भूख से टूटा-टूटा है!
मैं ये सब देख के शर्म से गड़ा,
उम्र से पाया भूख को मैंने बड़ा!
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