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तलाश है इक दरख़्त की इस तपती धूप में,
तमन्नओं से है राह-ए-हयात सुलगती धूप में!
है क़ौस-ए-क़ुज़ह निकला हुआ इस बाराँ में,
लगता है कोई बदली आई बिलखती धूप में!
ज़ुल्फ़ें ये आपकी दिल को है बाँधती "क़ैस",
दिखीं हैं काकुल-ए-शब-गूँ निकलती धूप में!
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