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हक़ीक़तनामा "---



कैसा दुनियादारी का बाज़ार सजा कर रक्खा है ।

मौत का , गरीब की मज़ाक बना कर रक्खा है ।।


जो रहा करते थे....... ख़्वाबों की अंजुमन में ।

उन्हें हक़ीक़त का आईना दिखा कर रक्खा है ।।


हम मरीज़ ए इश्क़ हैं , .....ये अब पता चला है ।

हमने हक़ीमों को भी घर पर बुला कर रक्खा है ।।


उनको मिले ख़ुशियाँ , ......चैन ओ सुकूं जहाँ में ।

इसलिये ग़मों को अपने अब तक सुला कर रक्खा है ।।


"काज़ी " उनकी मुस्कान बहुत महंगी है इसलिये ।

 उन्होंने तबस्सुम को भी लबों पर दबा कर रक्खा है ।।



©डॉक्टर वासिफ़ काज़ी , "काज़ीकीक़लम "

28/3/2 , इकबाल कालोनी , इंदौर


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