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मैं हूँ लफ़्ज़ों का व्यापारी तुम हो पढ़ी लिखी नारी
कितना भी करूँ कोशिश लफ़्ज़ों पर पड़ती हो भारी..
शब्दों के साथ खेलना सबको तुमसे सीखना चाहिए
क्योंकि जैसे खेलती हो अच्छों की उतर जाती ख़ुमारी..
ख़ूबसूरती से अल्फ़ाज़ों में बटोर लेती हो जज़्बातों को
आख़िर कहाँ छिपा रखी है जज़्बातों से भरी ये पिटारी..
वैसे तो अश्क-ए-मुसलसल ही काफ़ी थे डुबोने के लिए
फ़िर क्यों एहसासों की कश्ती लफ़्ज़ों के सैलाब में उतारी..
पर नूर-ए-क़लम नहीं डूबा पाओगी मुझे सैल-ए-अश्क़ में
क्योंकि दर्द-ए-जहाँ के अल्फ़ाज़ों से है मेरा दोस्ती-यारी..!!
#तुष्य
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