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मुख़्तसर हैं उम्मीदें पर ख़्वाहिशें तो थीं बेशुमार
जानता हूँ आसान नहीं उसका मिलना है दुश्वार
दर्द-ओ-ग़म-ए-ज़िंदगी ने ऐसा कर दिया बीमार
मेरे सब अरमानों का बेरहमी से कर दिया दमार
दास्तां-ए-मोहब्बत को कैसे पूरा करे ये क़लमकार
जब मेरा मुर्शिद ही नहीं मोहब्बत का तलबगार
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