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जो दर्द लफ़्ज़ों से बयाँ होता है
वो दर्द नज़रों में कहाँ होता है...
निग़ाहों से गुफ़्तगू हो सकती है
पर अल्फ़ाज़ों में दर्द-ए-जहाँ होता है..
मानता हूँ आँखें दीवाना बना लेती हैं
पर नज़्मों में हुस्न-ए-बयाँ होता है..
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