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क्यों मुश्किलों की धूप में तिल तिल जलूँ
जब मेरे भीतर साहस के असंख्य सूर्य हैं छिपे l
क्यों प्रतिफल की परवाह कर किनारे पर रहूँ
जब मेरे भीतर प्रयासों के अथाह समंदर हैं भरे l
क्यों निराधार असत्य की भीषण गर्जन से डरूँ
जब मेरी मनोभूमि में सत्य के अगणित जलजले दबे l
क्यों चुनौतियों की ललकार को ना स्वीकारूँ
जब मेरे भीतर अगाध विश्वास के अंकुर हैं पले l
डॉ. रूचि शर्मा 'सिसृक्षा'
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