
Share1 Bookmarks 86 Reads4 Likes
विश्वास की जमीं पर
अपनत्व की नमी पा
पनपता है प्यार
धीरे धीरे
सहअस्तित्व की
स्वीकार्यता लिये हुए
खिलते हैं पुष्प
मकरंद से भरे हुए
बिखर जाती है सुगंध
यहां-वहां हर जगह
नफरत का क्या है
नागफनी सी
उग आती है
शुष्क रेगिस्तान में
बिना किसी देख भाल के
काँटो के भरी हुई
करती है बस
हृदय विदीर्ण
तेरा भी और मेरा भी
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments