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तुम अशर्फियाँ इकट्ठे कर लो,
दुनियाँ के सारे शौक पूरे कर लो,
जब सब कुछ हासिल हो जाये,
तो फ़िर, चाँद, तारे,
और ये सारी क़ायनात भी,
अपनी झोली में भर लो,
और मुझे छोड़ दो उन गलियों में,
जहाँ मकाँ जले,
उम्मीदें टूटीं, घरों से ज़्यादा,
जहाँ वो बूढ़ी माँ बता रही थी,
कि कैसे उसके छोटे से घर को,
नफ़रत की एक बड़ी आग लील गई.
मुझे उसी बूढ़ी माँ के आँगन में बैठ कर,
प्यार और भरोसे पर इक नज़्म लिखनी है.
- दिलीप पाण्डेय.
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