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वह दिन,
वह घन्टे,
वह लम्हे,
बरबस याद आते हैं।
वह तुम्हें छत की मुंडेर पर ताकना,
किताब की ओट से चुपके से झांकना,
यूं लगता था कि वक्त चलते-चलते थम जाए,
और हम उसी लम्हे में बहते-बहते जम जाएँ।
वह छत,
वह मुंडेर,
वह किताब,
बरबस याद आते हैं।
कभी हाथ छू जाए तो दौड़ एक सिहरन जाती थी,
रोज़ाना किसी बहाने से इक बार तो दिख जाती थी।
वह शर्माते हुए देखना और देख कर फिर से शर्माना,
वह आहिस्ता-आहिस्ता सरक कर मेरे पास आ जाना।
वह सिहरन,
वह शर्माना,
पास आना,
बरबस याद आते हैं।
आज जब सब है, बस तू नहीं है,
यूँ लगता है कि मानो कुछ नहीं है,
दिल चाहता है कभी रात तेरी याद में सिसक जाए,
लम्हा-लम्हा रात दरवाज़े के नीचे से खिसक जाए।
उफ, ये तन्हाई!
तुम्हारा साथ,
और वो रात,
बरबस याद आते हैं।
अब और दूरी किसी हाल में मुझे मंजूर नहीं,
तक़दीर बेरहम तो ज़रूर है मगर मग़रूर नहीं।
तक़दीर से बिछड़े तदबीर से फिर मिल जाएंगे,
अबकी यू मिलेंगे कि कभी फिर ना दूर जाएंगे।
चांद रात,
तेरा साथ,
नयी याद,
नये पल बस बन जाते हैं,
और ताउम्र याद आते हैं,
ताउम्र याद आते हैं...
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