
मैं तो फ़क़त वो लिखता हूं, जो अल्फ़ाज़ तू कहती है,
शायरी मैं क्या करता हूं, तू रौशनाई सी रगों में बहती है।
तू ख़्यालों में चली आती है, वरना मेरी क्या हैसियत?
सबब-ए-मसर्रत तू ही है, और मेरी क्या कैफ़ियत।
खुशक़िस्मती सी मुस्कुराती है, तू ज़हन बनकर रहती है।
शायरी मैं क्या करता हूं, तू रौशनाई सी रगों में बहती है।
तेरी हया भी तो है तेरा कमाल, क्या कहना?
जब हो तू जवाब, तो फिर सवाल क्या कहना?
बेपरवाह जहां, इश्क में कुर्बां; सवालिया निगाह: तू कितना सहती है!
शायरी मैं क्या करता हूं, तू रौशनाई सी रगों में बहती है।
तुझ बिन है बेज़ार, तुझ संग ही है ज़िंदगी,
मुहब्बत मेरी ये, बेइंतहा बढ़कर बनी बंदगी।
मैं समंदर तकता हूं तेरी राह, तू आती दरिया सी बहती है।
शायरी मैं क्या करता हूं, तू रौशनाई सी रगों में बहती है।
हर शख़्स मेरे मानिंद तेरा आशिक, ना कोई ग़ैर,
आशिकी, मौसिकी, बंदगी यहां; नहीं है कोई बैर।
तेरी गलियों में तेरी महफ़िल, लेकिन तू पर्दे में रहती है।
शायरी मैं क्या करता हूं, तू रौशनाई सी रगों में बहती है।
धीरावत
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