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जितना दिया है तूने, अब तक वो कम नहीं,
यूँ भी नहीं है कि, बादशाहों को ग़म नहीं।
जितना भी मिला मुझको, तूने अता किया ,
दरियादिली ये तेरी, मेरे करम नहीं।
फेहरिस्त ख़्वाहिशों की, चलती है मुसल्सल,
पूरी कभी ना होती, उमर तो कम नहीं।
जितनी मेरी ज़रूरत, उतनी दी तूने चादर,
पर ख़्वाहिशें ये मेरी, होती ख़तम नहीं।
अब्तर ये ज़िंदगी बनी, कफ़-ए-दस्त से,
नाराज़गी का तेरी, मुझको भरम नहीं।
ताश के पत्तों के महल सा, मैं नहीं बिखरा,
क्यों की ये नहीं कि तू, मेरा सनम नहीं।
किसी को तकदीर मिली, तदबीर किसी को,
मेरा रब मिला है मुझको, कोई सितम नहीं।
खुशियाँ यूँ ही कभी ना, इनसाँ खरीद पाया,
ऐसा भी नहीं जेब में, उसके दिरहम नहीं।
अश्क-ए-लख़्त-ए-जिगर से, भी शीर ख़ुश्क है,
दो दिन की भूखी वालिदा, वो बेरहम नहीं।
है भाई की मुहब्बत, जो थप्पड़ भी खा लिया,
यूँ ना समझना उसकी, बाजू में दम नहीं।
कम लिबास में सरे राह, जो घूमे बेआबरू,
यूँ तो वो हया घर की, लेकिन शरम नहीं।
जैसा हो वक्त-ए-मुश्किल, जाएगा गुज़र तो,
अब्सार भी हमेशा, हैं रहते नम नहीं।
वक्त तो मुताबिक , चलता नहीं किसी के,
पेचीदगी मुसल्सल, क्यों जाती थम नहीं?
सिलसिला-ए-मसर्रत, जल्दी है निकलता ,
वक्त का दरिया तब, क्यों जाता जम नहीं?
हर बार फिर फ़लक से, लौट आना है ज़मीं पे,
तुझ पे ना फिर हो कुर्बां, ऐसा जनम नहीं।
बंदगी में तेरी, कलमा तो लिख मैं देता,
इंसाफ पर करे जो, ऐसी कलम नहीं।
दीवाना धीरावत, अशआर लिख रहा है,
पर लिखा है जो भी, कुछ भी मरम नहीं।
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