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आठ घंटे दिन के , तीस दिन महीने में
करता हूं काम , चंद रूपए कमने को
भूल जाता हूं दुख दर्द अपने , जिम्मेदारियां निभाने में
लौटता हूं जब कमरे को , पिंजरे सा आभास होता है
कोई पूछने को हाल मेरा , न मेरे पास होता है
फोन पर बातें होती हैं , के घर कब आओगे
छोटें पूछते हैं , भईया मेरे लिए क्या लाओगे
मां पापा से भी ख़ैर ख़बर की बातें हो जाती हैं
फोन कटता है जब , तो आंखें नम हो जाती हैं
यू ही दिन अब विराम लेता है
यहाँ तो सिर्फ काम और काम ही होता है
और करता हूं काम मैं , चंद रूपए कमने को
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