
यूं विषम समय तुम झलक दिखा, तन में सिहरन भर जाते हो
हमें समय-2 विचलित करके, तुम पता नहीं क्या पाते हो I
मैं कितना बेचारा हूं, उस विचलन में दब जाता हूं
सत्य कथन है नहीं है वो पल, तुमसे बिछड़ जब जाता हूं I
इक सतत श्रंखला थी जीवन में, अब शून्य उभर सा आया है
इस रिक्त स्थान की पूर्ति का,व्यंजक बस तुममें पाया है I
वो व्यंजक मुझको तुम दे दो, कितना अद्भुत एहसास जगे
फिर मृत्युलोक के ग़मों में भ, आनंद का अनुभव खास लगे I
एक बहुत ही शक्तिशाली चुम्बक, जुड़ा तुम्हारी काया से
मैं देव नहीं जो हो ना सकुं, आकर्षित इस माया से I
माया-चुंबक की काया के, अंश-अंश में सम्मोहन है
इसका ही तो परिणामी, उन वेदित भाव का दोहन है I
इस दोहन को ना रोक सकुं, यही मेरी विवशता है
बस तू मेरा हमराही बन जा, एक लक्ष्य अब दिसता है I
दीपक शर्मा
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments