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सुभाष चन्द्र बोस जो गांधीवाद से प्रभावित होकर आईसीएस की नौकरी छोड़ असहयोग आन्दोलन से जुड़ गये। असहयोग आंदोलन के दौरान सुभाष चंद्र बोस ने गांधीजी के बारे में कहा था -
'गांधी जी में कुछ तो ऐसी बात है जो समस्त भारतीयों को अपनी ओर खींचती है'
गांधी जी की ही सलाह पर उन्होंने सी.आर. दास के साथ बंगाल में आन्दोलन से जुडे । बाद में उन्होंने सी.आर. दास को अपना राजनीतिक गुरू बना लिया।
जब असहयोग आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था तो 4 फरवरी 1922 को चौरी चौरा कांड हो जाने के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। इस संदर्भ में सुभाष चंद्र बोस ने कहा था -
'कि एक ऐसे समय पर जब आंदोलन अपने चरम पर था उसे वापस लिया जाना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम ना था।'
1923 में इन्हें युवा कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया। उन्होंने बंगाल में तारकेश्वर आंदोलन के तहत मंदिरों के भ्रष्ट माहंतों के खिलाफ आंदोलन किया।
1938 में इन्हें हरिपुरा अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। वह चाहते थे कि अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष किया जाए ,पर गांधी जी इसके लिए तैयार ना थे। 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में गांधीजी के ना चाहते हुए भी उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ा। उनके विपक्ष में पट्टाभिसीता रमैय्या ने चुनाव लड़ा, जिन्हें महात्मा गांधी का समर्थन प्राप्त था। पर इस अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस अध्यक्ष चुने गये। इससे नाराज गांधी जी ने कहा था कि यह पट्टाभिसीता रमैय्या की हार नहीं, यह मेरी हार है। इसके बाद गांधीजी और सुभाषचंद्र बोस के बीच मतभेद बढ़ गए। सुभाषचन्द्र बोस ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और 1939 में एक नया संगठन 'फारवर्ड ब्लॉक' का गठन किया।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सुभाष चंद्र बोस चाहते थे कि अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष किया जाए इसके लिए उन्होंने अंतरराष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करने की कोशिश की। सुभाषचन्द्र बोस जर्मनी के शासक हिटलर से मिले और 'फ्री इंडिया सेंटर' की स्थापना की। वहां से उन्होंने मास्को की यात्रा की और फिर वह जापान गए। जहां पहले से ही रास बिहारी बोस की पहल पर कैप्टन मोहन सिंह ने सितंबर 1942 को एनआईए का गठन किया।
जुलाई 1943 को सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर पहुंचे। यहां उन्हें आजाद हिंद फौज का सर्वोच्च सेनापति घोषित किया गया। 21 अक्टूबर 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार का स्थापना की। जर्मनी ,जापान और उनके समर्थक देशों ने इस सरकार को मान्यता भी दे दी। सुभाष चंद्र बोस ने सेना के ब्रिगेड का नाम 'रानी झांसी रेजीमेंट', 'सुभाष ब्रिगेड', 'नेहरू ब्रिगेड' और 'गांधी ब्रिगेड' रखा।
उसी समय उन्होंने एक नारा दिया
'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा'
6 जुलाई 1944 को सुभाष चंद्र बोस ने रेडियो पर बोलते हुए गांधीजी को संबोधित किया "भारत की स्वाधीनता का आखिरी युद्ध शुरू हो चुका है। राष्ट्रपिता! भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएं चाहते हैं।"
महात्मा गांधी को पहली बार 'राष्ट्रपिता' सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था। यह दर्शाता है कि महात्मा गांधी से मतभेद होने के बावजूद भी मन भेद नहीं था वह उन्हें अपना आदर्श मानते थे।
1945 में द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हार के साथ ही आजाद हिंद फौज के सिपाहियों को भी आत्मसमर्पण करना पड़ा। सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर से जापान की ओर जा रहे थे संभवतः ताइपेई हवाई अड्डे पर विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और वे 18 अगस्त 1945 को शहीद हो गए।
~दीपक चौधरी
Photo- pinterest
'गांधी जी में कुछ तो ऐसी बात है जो समस्त भारतीयों को अपनी ओर खींचती है'
गांधी जी की ही सलाह पर उन्होंने सी.आर. दास के साथ बंगाल में आन्दोलन से जुडे । बाद में उन्होंने सी.आर. दास को अपना राजनीतिक गुरू बना लिया।
जब असहयोग आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था तो 4 फरवरी 1922 को चौरी चौरा कांड हो जाने के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। इस संदर्भ में सुभाष चंद्र बोस ने कहा था -
'कि एक ऐसे समय पर जब आंदोलन अपने चरम पर था उसे वापस लिया जाना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम ना था।'
1923 में इन्हें युवा कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया। उन्होंने बंगाल में तारकेश्वर आंदोलन के तहत मंदिरों के भ्रष्ट माहंतों के खिलाफ आंदोलन किया।
1938 में इन्हें हरिपुरा अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। वह चाहते थे कि अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष किया जाए ,पर गांधी जी इसके लिए तैयार ना थे। 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में गांधीजी के ना चाहते हुए भी उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ा। उनके विपक्ष में पट्टाभिसीता रमैय्या ने चुनाव लड़ा, जिन्हें महात्मा गांधी का समर्थन प्राप्त था। पर इस अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस अध्यक्ष चुने गये। इससे नाराज गांधी जी ने कहा था कि यह पट्टाभिसीता रमैय्या की हार नहीं, यह मेरी हार है। इसके बाद गांधीजी और सुभाषचंद्र बोस के बीच मतभेद बढ़ गए। सुभाषचन्द्र बोस ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और 1939 में एक नया संगठन 'फारवर्ड ब्लॉक' का गठन किया।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सुभाष चंद्र बोस चाहते थे कि अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष किया जाए इसके लिए उन्होंने अंतरराष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करने की कोशिश की। सुभाषचन्द्र बोस जर्मनी के शासक हिटलर से मिले और 'फ्री इंडिया सेंटर' की स्थापना की। वहां से उन्होंने मास्को की यात्रा की और फिर वह जापान गए। जहां पहले से ही रास बिहारी बोस की पहल पर कैप्टन मोहन सिंह ने सितंबर 1942 को एनआईए का गठन किया।
जुलाई 1943 को सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर पहुंचे। यहां उन्हें आजाद हिंद फौज का सर्वोच्च सेनापति घोषित किया गया। 21 अक्टूबर 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार का स्थापना की। जर्मनी ,जापान और उनके समर्थक देशों ने इस सरकार को मान्यता भी दे दी। सुभाष चंद्र बोस ने सेना के ब्रिगेड का नाम 'रानी झांसी रेजीमेंट', 'सुभाष ब्रिगेड', 'नेहरू ब्रिगेड' और 'गांधी ब्रिगेड' रखा।
उसी समय उन्होंने एक नारा दिया
'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा'
6 जुलाई 1944 को सुभाष चंद्र बोस ने रेडियो पर बोलते हुए गांधीजी को संबोधित किया "भारत की स्वाधीनता का आखिरी युद्ध शुरू हो चुका है। राष्ट्रपिता! भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएं चाहते हैं।"
महात्मा गांधी को पहली बार 'राष्ट्रपिता' सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था। यह दर्शाता है कि महात्मा गांधी से मतभेद होने के बावजूद भी मन भेद नहीं था वह उन्हें अपना आदर्श मानते थे।
1945 में द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हार के साथ ही आजाद हिंद फौज के सिपाहियों को भी आत्मसमर्पण करना पड़ा। सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर से जापान की ओर जा रहे थे संभवतः ताइपेई हवाई अड्डे पर विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और वे 18 अगस्त 1945 को शहीद हो गए।
~दीपक चौधरी
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