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मैं संगम पर गंगा किनारे आहाना के इंतजार में रेत पर बैठा था। दिन ढलने वाला था, सूरज अपने क्षितिज पर पहुँच चुका था ; सूरज की लाल किरणें गंगा को लालिमामय बना रही थी। प्रवासी पक्षी गंगा में कभी डूबकी लगा रहें थे तो कभी ऊपरी सतह को छू कर उड़  जाते थे, मानो वो गंगा से लुका छुपी का 'खेल' खेल रहे हों ! गंगा के इस वातावरण में पक्षियों का चहचहाना मानो एक अलग ही मधुर संगीत उत्पन्न कर रहा हो। कुछ लोग गंगा - यमुना में नाव पर बैठकर बोटिंग का आनंद ले रहे थे और कुछ लोग आस पास बैठे हुए थे। थोड़ी दूर पर अकबर के किले के पास लेटे हुए हनुमान जी का मंदिर था, जिस पर राम भक्ति के गाने चल रहे थे ; जो यहां तक सुनाई दे रहा था। इतना सुन्दर दृश्य था कि मैं उसमें खो गया था , अचानक पीछे से किसी ने आकर अपने हाथों से मेरी आंखों को ढक लिया। मैनें कुछ सेकंड का समय लिया और बोला - आहाना पास में बैठो।

वह बैठते हुए बोली...


आहाना - तुम मुझे पहचान कैसे जाते हो ?
मैं - तुम्हारे बालों की खुशबू ही काफी है तुम्हें पहचानने के लिए !

उस दिन उसने सफेद रंग का सलवार - सूट पहना था और लाल रंग का ओढ़नी लिए हुए थी ; जिसमें वह बहुत खूबसूरत लग रही थी।

वो बगल में बैठ गयी और बैठते ही बोलना शुरू कर दिया। वो न जाने क्या - क्या कह रही थी और मैं शांति से उसकी बातें सुन रहा था। अचानक मेरी नज़र उसके इयररिंग पर पड़ी , जो सूरज की किरण पड़ने से चमक रही थी और वह उसे और भी खूबसूरत बना रही थी। उसे देख कर याद आया कि यह इयररिंग तो मैंने ही उसे दिया था। मैं उसे निहार ही रहा था कि वह एकाएक चुप हो गयी और वह मेरी तरफ देखने लगी ; और बोली -

आहाना - क्या हुआ ?  कहाँ खोये हुए हो ?
मैं - कहीं तो नहीं !
आहाना - सच बोलो !
मैं - सच में कहीं नहीं ...

वह बात बदलते हुए बोली ...
आहाना - अच्छा चलो , नाव पर बैठ कर घूमते हैं
मैं - अच्छा चलो !

मैं और आहाना एक नाव वाले काका के पास गये
मैं - काका नाव ले चलोगे ?
काका - हाँ बेटवा
मैं - कितना लोगे ?
काका - आधे घंटे का 150 रूपया
मैं - क्या काका ? कुछ कम नही होगा !
काका - ठीक है , 140 दे देना
हम दोनों नाव में बैठ गये , काका नाव को गंगा यमुना के संगम की ओर ले चले।

                    आहाना ने प्रवासी पक्षियों को खिलाने के लिए नमकीन लिया था। वह नमकीन को हाथ में लेकर

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