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इंसान के फरेब की क़िस्त बड़ी लम्बी हैं,
कि अब तक तो कायनात रुक जानी थी,
आसमान के सितारें टूट कर गिर जाने थे,
इन सातों समंदर का पानी सुख जाना था |
कहो आखिर शुरुआत कहाँ से की जाए,
नन्ही गोरैये की ज़िद थी कि वापस नहीं आएगी,
पेड़ों की शाखें,पत्तें और घरोंदें छोड़ जाएगी,
नहीं लौटेगी, कहते हैं अब कभी नहीं आएगी |
पेड़ों की शाखों के ऊपर तिनकों का शहर था,
सुबह की लाली से शाम के धुएँ तक सफर था,
सभी कहते हैं उन्हीं का था, उनका अपना घर था,
फिर क्यों बिखर गए, तिनकों से क्या डर था |
जाने किस के आँगन से तिनकें चुन लाई होगी,
जहरीले स्याह में डूबे पानी से ललचाई होगी,
रात भर कितने रोज़ उसे नींद नहीं आई होगी,
रूठे बच्चे, भूखे बच्चे, क्या याद नहीं आई होगी | -चंद्र शेखर तिवारी
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