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भ्रमित मानव
जीवन की डगर काँटों का भँवर
मंजिल की दूरी चलना है जरूरी
डगमगाए कदम लड़खड़ाई जुबान
बिखरा हुआ दिखता हर इंसान
हिंसा की लहर नफरतों का जहर
बढ़ता जा रहा अलगाव का कहर
संतोष का अभाव शान्ति की कमी
दिखती नहीं अब अपनत्व की नमीं
भ्रमित है जीवन कपट भरा मन
कमजोर है दृष्टि शिथिल हुआ तन
अहंकार भरी है धधकी ज्वाला
समझे निज को जग रखवाला
कुंठित आराधना शून्य हुई भावना
दम्भित मन से भगवत को साधना अपनापन खोया जीवनभर रोया
फल वही पाया जो था बोया
चमनलाल भारद्वाज
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