
एक निर्धन व्यक्ति जो सड़क किनारे बैठा है और वह किस अवस्था में जी रहा है यां उसकी भावनाएं इस कविता में व्यक्त करने कोशिश की है।
बैठा हूं सड़क के किनारे पर; जी रहा हूं उम्मीद की राह पर
तार-तार अंबर से जिस्म ढका है
सड़क के किनारे पर।
सड़क के किनारे पर।
भूख–प्यास बुझाता हूं दो-चार पानी के घूंट पीकर
कई बार खुद में ही हंसता–रोता
सड़क के किनारे पर।
सड़क के किनारे पर।
लहू दौड़ रहा नब्ज में, रोही रंग है जिसका जिस्म के भीतर;
जात–धर्म–पंत मिट गया है माथे से
सड़क के किनारे पर।
सड़क के किनारे पर।
बनाया है घर–आंगन सड़क के किनारों को;
अपनों से बिछड़कर अकेला पड़ गया हूं
सड़क के किनारे पर।
सड़क के किनारे पर।
पहचान खो चुका हूं इस ज़मीं पर,
फकीर नाम से मशहूर हो चुका हूं
सड़क के किनारे पर।
सड़क के किनारे पर।
फकीर नहीं हूं यह कमबख्त वक्त बैठा है सिर पर;
मुझसे भी तो कोई बात करो, इंसान हूं पुतला नहीं
सड़क के किनारे पर।
सड़क के किनारे पर।
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