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पुरुष स्त्री से अपेक्षा कर लेता है पृथ्वी समान धैर्य की,
किंतु ख़ुद नहीं बन पाता समुद्र की तरह अथाह गंभीर।
पुरुष स्त्री से अपेक्षा करता है हंस के जैसी निष्ठा की,
किंतु ख़ुद कपटी होकर भी नाम दे देता है उसे प्रेम का।
पुरुष स्त्री से कहता है कि तुम महानता की मूरत हो!
और बैठा देता है उसे उच्च स्थान पर ताकि वो उसकी दी हुई महानता की उपाधि के बोझ तले दबी रहे और न उठाये अपनी आवाज़ उस अत्याचार के विरुद्ध जो उसके ऊपर होता आया है सदा से अलग-अलग नामों के रूप में!
और फिर एक समय बाद जब स्त्री इन अलंकारों से भ्रमित होना छोड़ उठाती है स्वर अपने अधिकार के लिए तब उसे विद्रोही कह तिरस्कृत कर दिया जाता है और फिर किसी अन्य पृथ्वी जैसी स्त्री की खोज शुरू हो जाती है।
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