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स्वप्न ! बस तुम न सराहो
कि 'मैं संघर्षरत रहता निरत हूँ' ।
न प्रोत्साहो विजय के कूच को
न युद्ध को न ही जय को ।
शक्ति साधन करते-२ थक
चुका निर्भय हृदय भी ।
संग की अभिलाषा,
निर्मल-सरल जीवन की आशा ।
स्वप्न ! में विश्राम का आकांक्षी हूँ अब
बस शिशु हो आश्रय चाहूँ तुम्हारा ।
ब्रजेश
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