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यौवन की वो उमंगें, उठती हुई तरंगें
सब शांत हो रहीं हैं, अब उम्र ढलते-ढलते
आए थे क्यू जहाँ में? जाएँगे भी क्या लेकर?
जागा हुआ है ख़ौफ़, ये एहसास पलते-पलते
ओढ़ी हुई है चादर इस रूह ने बदन की
यह उम्र बीत जानी है लिबास जलते-जलते
ये लोक ना सँवारा, परलोक भी बिगाड़ा,
अब क़ाफिला उठेगा,
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