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यौवन की वो उमंगें, उठती हुई तरंगें
सब शांत हो रहीं हैं, अब उम्र ढलते-ढलते
आए थे क्यू जहाँ में? जाएँगे भी क्या लेकर?
जागा हुआ है ख़ौफ़, ये एहसास पलते-पलते
ओढ़ी हुई है चादर इस रूह ने बदन की
यह उम्र बीत जानी है लिबास जलते-जलते
ये लोक ना सँवारा, परलोक भी बिगाड़ा,
अब क़ाफिला उठेगा, यूँ ही हाथ मलते-मलते
सब आस भी तू ही है, विश्वास भी तू ही है
मेरी बिगड़ी तो बना दे, ये श्वास खलते-खलते
कर मोर-पंख वाले!! कुछ इंतज़ाम ऐसा
आ जाए मेरे मुख पे तेरा नाम चलते-चलते
मेरी रूह समा जाए, तेरी रूह में पियारे
करुणा तेरी फल जाए, मेरे कर्म फलते-फलते
-ब्रजेश
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