
चलता रहा मैं, जिंदगी के इस सफर में।
सपने बहुत बड़े थे ,मंजिल बहुत दूर था।
सपनो को हकीकत में बदलने का बड़ा ही जुनून था।
जब रास्ते देखे तो लगा, यह सफर बहुत कठिन था।
अपने होंसलो को इस कद्र मजबूत किया कि,
कठिन रास्तों पर चलना ही मेरा इम्तिहान था।
शूल भी थे, कंकड़ भी थे इस राह में।
आंधियां भी थी, तूफान भी थे इस कतार में।
हवा का हर एक झोंका मेरे खिलाफ था इस शहर में।
खुदा की रहमत भी काम ना आई मेरे इस कहर में।
तलवार की धार सा था यह पथ, जिंदगी का,
पर नंगे पांव ही चलता रहा जिंदगी के इस सफर में।
अंधियारा था , सुनसान सा था।
जंगल था , चीते का घर भी था राह में।
आंखों में ओझल था, धुंधला सा नजारा था।
दूर दूर तक कोई अपना भी नहीं था इस डगर में,
पर बिन आंखों के ही चलता रहा जिंदगी के इस सफर में।
दुनिया गिराती रहीं, मै उठता रहा।
दुनिया सुलाती रही, में जगता रहा ।
दुनिया भटकाती रही , मै मंज़िल ढूंढता रहा।
दुनिया ने पत्थर फैंके, मैं उन्ही पत्थरो से घर बनाता रहा।
हार कर बैठ गई यह दुनिया ,अपने ही घर में।
मैं औरों के बिन परवाह चलता रहा जिंदगी के इस सफर में।
सुनामी तेज थी, किनारा दूर था।
तैरना नहीं आया , इस बात पर मजबूर था।
समुंद्र को अपनी ताकत पर बड़ा गुरुर था।
दरिया के भंवर में फंसता गया, पर मैं वीर शूर था
लहारो के विपरीत ही टकरा रहा था उस समंदर मे
कश्ती भी निकल गई मेरे हाथ से,
बिन पतवार ही चलता रहा जिंदगी के इस सफर में
शहर में बिजली थी, मै नंगे तार पर चल रहा था।
नीचे गहरी खाई, तो आसमां में बाज का पहरा था।
बाधाओं का आलम तो यह था कि,
चारो तरफ आग थी और बीच में एक मेरा कमरा था।
बहुत कोशिश हुई मुझे कैद करने की मेरे ही घर में।
हर कोशिश को नाकाम कर चलता रहा जिंदगी के इस सफर में।
जीने का यह फलसफा रखा मेने,
चलता ही जाऊंगा अपनी ही धुन में इस बंजर सी राह पर। मिलेगी मंज़िल एक दिन मुझे कांटो के इस डगर में।
रुकूंगा नही, अकेला ही चलता रहूंगा जिंदगी के इस सफर में।
लेखक
भगवान बोस
असिस्टेंट नर्सिंग सुपरिटेंडेंट
एम्स जोधपुर
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