सुप्त देवत्व का पुर्नजागरण's image
Article8 min read

सुप्त देवत्व का पुर्नजागरण

mukesh Kumar Modimukesh Kumar Modi December 9, 2022
Share0 Bookmarks 47632 Reads0 Likes

*सुप्त देवत्व का पुर्नजागरण*


मनुष्य के वर्तमान चरित्र का गहनतापूर्वक अध्ययन करने से यही निष्कर्ष निकलता है कि सृष्टिचक्र के आदि काल में उसके चरित्र में देवत्व विद्यमान था जो जन्म-जन्मान्तर पांच विकारों के चंगुल में फंसते फंसते चारित्रिक गिरावट के कारण आज सुप्त अवस्था में जाकर मूर्छित सा हो गया है ।


बर्हिमुखता का संस्कार नैसर्गिक होने के फलस्वरूप औरों के अवगुण देखते देखते मनुष्य स्वयं ही अवगुणों का भण्डारग्रह बन गया है । अन्तर्चेतना में विद्यमान दिव्य गुणों रूपी हीरे, पन्नों, माणक, मोतियों के ऊपर विकारों और अवगुणों रूपी धूल, मिट्टी व कचरे का ढ़ेर आच्छादित होने के कारण इन गुणों की चमक व्यक्ति के आचरण, व्यवहार व चरित्र को देदीप्यमान नहीं कर पा रही ।


आज तो मनुष्य के समक्ष अपने जीवन को सुख शान्ति से व्यतीत करने की सबसे बड़ी चुनौती है । देवत्व का पुनर्जागरण करना तो वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता।


कहीं ना कहीं मानव की अन्तर्चेतना को यह स्पर्श अवश्य करता होगा कि उसका जीवन ऐसा क्यों है ? वह दुखों, कष्टों, पीड़ाओं और असाध्य रोगों के घेरे में क्यों है ?


जीवन की सभी दुविधाओं, समस्याओं, परेशानियों से मुक्त होकर सुख-शान्ति सम्पन्न जीवन व्यतीत करने के लिए मनुष्य सदियों से प्रयासरत भी है । इसीलिए उसने अनेक प्रकार की क्रीड़ाएं विकसित की है, मनोरंजन के अनेकानेक साधन अविष्कृत किए हैं, ज्योतिष व हस्तरेखा विज्ञान के माध्यम से भी सुख शांति की आस लगाए बैठा है । किन्तु उसके सभी प्रयास लगभग विफल ही रहे हैं, या अल्पकालिक रूप से ही सफल हुए हैं ।


देखा जाए तो इन सभी साधनों और विधियों से हम भ्रमित ही होते है, क्योंकि इनका सहारा लेकर भी हम आत्मा की मूल अवस्था, मूल स्वरूप, हमारे नैसर्गिक देवत्व और अलौकिक पहचान से दिन प्रतिदिन विस्मृत होते जा रहे हैं । वर्तमान में यह विस्मृति सामाजिक प्रचलन का रूप ले चुकी है क्योंकि भोग विलास के आकर्षण में हर पीढ़ी आत्मा के अस्तित्व को लगभग नकारती आई है ।


आज मनुष्य यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि उसकी ही अन्तर्चेतना में वह देवत्व विद्यमान है जो उसके आत्मिक सुख और शान्ति से भरपूर सामाजिक जीवन का आधार है और यदि यह देवत्व सम्पूर्ण रूप से उसके व्यक्तित्व और चरित्र के माध्यम से प्रस्फुटित हो गया तो वह चैतन्य पूज्य देवता भी बन सकता है। आखिर कैसे उस देवत्व का पुर्नजागरण होगा ? भटकते हुए कदमों को सही दिशा कौन देगा ? बिखरे हुए व्यक्तित्व को कैसे एकीकृत रूप से श्रेष्ठ विचारों के व्यक्तित्व का रूप दिया जाएगा ?


सदियों से बहिर्मुखी दृष्टिकोण होने के कारण अक्सर हम इन प्रश्नों के उत्तर की खोज अथवा जीवन की सभी समस्याओं का समाधान पूजा स्थलों में, तीर्थों में, दान पुण्य में, कर्म काण्ड में या संसार के भौतिक संसाधनों में करते हैं, किन्तु हम समाधान के द्वार तक पहुंच नहीं पाते । जब हमारा देवत्व हमारी ही अन्तर्चेतना में मुर्छित अवस्था में पड़ा है, तो फिर इसका पुर्नजागरण इन सांसारिक स्थूल उपायों से कैसे सम्भव है ?


इसलिए इस त्रुटि को सुधारकर खोज की विधि बदलने से समाधान के रूप में सफलता भी निश्चित रूप से प्राप्त होगी । हमें केवल दर्शन की दिशा को अपनी ओर

No posts

Comments

No posts

No posts

No posts

No posts