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किसी सीने पे आहट दी, किसी काँधे पे सर रक्खा
हुए कितने भी बेपरवाह मगर बस एक घर रक्खा
ज़माने ने ये साजिश की, किसी के हम न हो पाएं
ख़ुदी पे आशना लेकिन हमीं ने हर पहर रक्खा
वो चलता है तो अक्सर आदतन ग़म भूल जाता है
यही बस सोचकर हमने बड़ा लम्बा सफ़र रक्खा
अकेलापन ही रहता है वफ़ा के रेगज़ारों में
यूँ ही बस दिल बहल जाए सो हमने इक शजर रक्खा
तिरे हर दर्द को 'बेबार' नाज़ों से सँभाले है
मुझे जिस हाल में छोड़ा, उसी को फिर बसर रक्खा
प्रशांत बेबार
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