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कार के शीशे में रह जाता शहर हम देखते हैं
जाने क्यूँ उस पगली की आँखों में घर हम देखते हैं
इस क़दर वो बिछड़ा कि बस भर नज़र ना देख पाए
अब तो आती और जाती हर नज़र हम देखते हैं
हैं बड़े नादान ऐसी आँखों के मासूम सपने
क़ैद में है ज़िन्दगी फिर भी सफ़र हम देखते हैं
मौत आज़ादी से बेपरवाह घूमे रात दिन भी
ज़िंदगानी को ही घुटती सी बसर हम देखते हैं
रश्क़ होता है हमें 'बेबार', अब क्या ही बतायें
जब भी उड़ती बैया के आज़ाद पर हम देखते हैं
- प्रशांत बेबार
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