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दौड़ती राहों में ठहराव ढूंढ रहे है
भरी दोपहरी की छांव ढूंढ रहे है
लगा कर प्रीत नीर भरी घटाओं से
शुष्क बदली से लगाव ढूंढ रहे है
है उम्मीदें कोष्ठकों में बंद समाई
हौसले भी गिन रही इकाई दहाई
उलझ कर जवानी के गुणा भाग में
बचपन वाले जोड़ घटाव ढूंढ़ रहे है ,
हरकते आजकल पागलो जैसी खोजता
मनवा जवानी से कट्टी लेने की सोचता
आधुनिकता की बारिश में जो बह गईं
वही एक काग़ज़ की नाव ढूंढ रहे है ।
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