
मैं जागकर भी कहीं, बेशुद पड़ा हूं।
उजाले में होकर भी, लालटेन लिए खड़ा हूं।
भीड़ का हिस्सा हर रोज़ बनता हूं। मगर
सुनसान ही क्यों ख़ुद में, मैं आख़िर हो जाता हूं।
खामियां न जाने कितनी ही ओढ़े हुऐ हूं।
ख़ुद से ही जानने की,
बहुत कोशिश भी करता हूं।
मगर भूल जाता हूं, उस दुनियां में समाकर।
जहा मैं सिर्फ़ चल रहा,
वहा कई मुझ जैसे दौड़ लगाते हैं।
बया करू किस रोशनी को,
ये बेजान सा अंधकार अपना।
उसे भी तो अपने वर्चस्व के लिए ,
कुछ घनघोर बदलो का मकान चाहिए।
सब कुछ छोड़ अब, एकांत की ओर आया हूं।
अकेला बनकर, संसार छोड़कर ।
अब खुद से जुड़ने आया हूं।
असल में, अब कौन हूं मैं ?
बस यही ढूंढ़ने आया हूं।
ये युद्ध होगा, अब मेरा मुझसे।
या कोई खोज बनकर, कही मिलेगी मुझमें।
तलवार लिए मैं, वार कर रहा।
वहीं ढाल लिए मैं, वो वार सह रहा।
वो जंग जीत गया तो विजेता मैं,
और हार गया तो वो कायर भी मैं।
बस यही ढूंढना मैं चाहता हूं।
असल में अब.......कौन हूं मैं ?
ख़ोज लूंगा यूंही लड़ते संभलते।
आज नही तो कल खुद को मैं।
फ़िलहाल इतना जान गया हूं।
कमज़ोर नहीं हूं बिल्कुल मैं।
धन्यवाद।।
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