
हम जानते थे एक दूजे को,थोड़ा बहुत सही से।
आस पास रहे एक दूजे के, कुछ पल को ही मगर तकलीफ से।
जो वक्त था साथ मैं,थोड़ा हंसे और थोड़ा लड़ते रहे।
मालूम था हम दोनों को, वो खुद में रहने के एहसास का।
फिर भी सब कुछ जान के, अनजान बने रह गए।
शायद मिलना ही नहीं था हमारे नसीब में,
इसलिए हर बार करीब होके भी, बेजुबान से रह गए।
वो जो गुजरना होता था, हर बार तेरे ठिकाने से,
बस एक झलक तेरे चहरे की न जाने कब से तरस रही।
मेरी मौजूदगी की खबर तूने भी हर बार रखी है।
रूबरू होंगे उस घड़ी की इंतजार में,तेरी आंखे भी तक रहीं हैं।
वो मालूम था हम दोनों को, खुद में रहने के एहसास का।
शायद मिलना ही नहीं था हमारे नसीब में,
इसलिए हर बार करीब होके भी, बेजुबान से रह गए।
कुछ यादें साथ बनी थी,
धुंधली ही सही मगर वो याद, कभी याद तो आई होगी।
भले ही गुमनाम रखे खुद को,एक दूजे के एहसासों से।
उभर आऐ कई हिस्से फिर, जो सुला दिए थे खयालों से।
वो नाम कही से जो गूंज उठा, कही भीड़ से ,कभी परायों से।
सुन के अन सुना और सब नज़र अंदाज़ करते गए
शायद मिलना ही नहीं था हमारे नसीब में,
इसलिए हर बार करीब होके भी, बेजुबान से रह गए।
अब क्या कभी मुलाकात होगी।
हाल चाल ही सही,कुछ पल की बात चीत भी होगी।
वो कुछ ख़्वाब सझा के अब भी
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