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मंजिलों पर सफ़र के किस्से सुनाते हैं ,
ये लोग भी न जाने क्यूं आते हैं ,
हर राह पर निशान मिलते हैं उसके ,
न जाने फिर क्यूं पैर डगमगाते हैं ,
कुछ यारों के घर बसेरा था हमारा ,
अब तो हम भी वक्त पर आते हैं ,
जागती रहती हैं आखें ख़्वाब में ,
और कोई ख़वाब नही आते हैं ,
थे पहरे ज्यों उसके कूचे में जोशी ,
वहा भी अब लोग चार नज़र आते हैं
– अविनाश जोशी
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