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पहले कभी न थे ये मकान ये गलियां ये रास्ते ,
थे तो केवल गगन की सिकुर्ती बाहों को चूमते ये विशाल दरख़्त ,
न थी यहां ऊन की बुनी चादर ,
न कोई बिछोने थे ,
थी तो केवल ज़मीन पर बिछी हरी घास ,
न थे पहले कभी ये किस्से जिन्हें तुम
कहते हो लिखते हो ,
थी तो केवल वो हकीकत पर मली कुछ झूठी बात ,
न हम थे न तुम थे न थे हृदय के कूट भाव ,
थी तो केवल गोविंद के होठों से निकली बांसुरी की मधुर राग ,
पहले न तो व्याकुल कान्हा थे न उनकी बांसुरी पे विरह का भार ,
थी तो केवल रा धा रा धा के स्वर में झूमती वृंदावन की हर शाम ।
– अविनाश जोशी ।
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