
एक दिन ,
अचानक यूँ ही तुम्हारा ख्याल आया , कुछ अनकहे लब्ज ,
झाँकने लगे पलकों से , हवा में तैरते हुए से दिख रहे थे
वो एहसास जो तुम्हारी वजह से थे , बहुत सारे एहसास तुम्हारी वजह से थे ,
वो भी जो आखिरी में मिले, अकेलेपन में खुद की खुद से लड़ाई में पैदा हुए
इन सभी एहसासो से घिरा हुआ था मै
फिर खिड़की पे पैर रखे हुए , अर्धचेतन अवस्था में ही मैंने वो सिगरेट जलाई
धीरे धीरे एहसासो के बीच में धुँआ भी तैरने लगा
वो धुँआ उन एहसासो को डडुबाने की कोशिश रहा था ।
एक एक कश में गाढा सफ़ेद धुँआ एक झील की तरह बढ़ता था
उस झील में मैंने देखा उस आखिरी एहसास को छटपटाते हुए ,
धीरे धीरे दम तोड़ते हुए
उन मरते हुए एहसासो के सम्मोहन में तल्लीनता का तिलिस्म
उस जलती हुयी सिगरेट की गर्मी के एहसास ने जब उंगलियो को सुलगाया तब टूटा
फिर कई दिन बाद तुम उस दिन कॉफीशॉप पे सामने की कुर्सी पे बैठी दिख गयी
जाने कैसे तुम्हे कैसे मालूम हुआ की ,
मै बैठा हूँ सामने तुमने नज़ारे उठाई और सीधे मेरी तरफ देखा
हम दोनों एक दूसरे को देखते रहे
हवा में फिर एक बाढ़ आ गयी एहसासो की
आँखे बोझल हो गयी उन एहसासो के बोझ से
वो नजरो का पल उस वेटर के कॉफी लाने से टूटा
दरिया के उस पार बैठी तुम
कॉफी कप में कॉफी को न जाने कितनी देर तक चम्मच से घुमाती रही
इधर मै दरिया के इस पार ,बिना देखे कॉफी पीता रहा
दरिया के उस पार से हम तुम नज़रो के पुल पे चल कर कुछ सवाल कुछ जवाब दे रहे थे
फिर एक फ़ोन कॉल आया और एक हेलो की आवाज़ में वो सारा पुल और दरिया सब वही डूब गए
तुमने भी नजरे झुका ली ,मै भी बिल देके बाहर चला गया
श्रीनिधि मिश्रा
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