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जिनके ख़ातिर स्वीकार कर लिया, हर दाग़ अपने चरित्र पर,
मिटा दिया ख़ुद को कैनवास से, शर्मिंदगी हो न महसूस उन्हें अपने चित्र पर,
जिनके अकेलेपन का साधन हम थे, वो ही कर गए हमें अकेला,
आँखों में आँखें डालकर बोलते रहे झूठ, अब कैसे कर लें विश्वास किसी मित्र पर।
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