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इस पंचवटी पुनीत में,
गोदावरी के गीत में।
काठ की उस नाव में ,
पर्ण कुटी की छांव में।
हर कण यहां पर प्रीत है,
हर क्षण यहां पर प्रीत है।
श्री राम के कर्तव्य में,
वचन के उस मान में।
भाई को जो थी समर्पित,
लखन के उस प्राण में।
उल्लेख में भी प्रेम है।
आलेख में भी प्रेम है।
मां जानकी के स्वयं ही,
हर विभव को तजने में।
मिथिला, अयोध्या छोड़कर,
वनवास को अरजने में।
हर कर्म में ही स्नेह है।
हर मर्म में ही स्नेह है।
लखन संग जागी हुई,
चाहे वो रमणीक रैन हो।
कनक मृगा पर नजरें टिकाए,
श्री राम के दो नैन हो।
हर अंश
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