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ना आस मे, ना पास मे,
ना दुर उस आकाश मे,
ना दिन मे ना ही रात मे,
ना संगीयो के साथ मे,
ना धुप, ठंडी छांव मे,
ना बदलियो बरसात मे,
ना मंदिर ना मजार मे,
खोजता हु आज तुम्हे,
खुद के भीतर झांक के।
मै तुमको पा सकता था पर,
दिल पर थी बहुत पाबन्दी,
यु तुम क्यो नही समझी,
जो बाते आंखे किया थी करती।
उम्मीदे ढेरो थी जो तुमसे,
युही दबी सी रह गई,
जो सोचा कभी कह दु,
जुबा बया नही करती।
सभी ने रोक रखा था,
सही गलत समझा के,
जो जिद्द पर आ ही जाता मै,
खुदाया कुछ नही करती।
"आशुतोष"
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