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बाल साहित्य के प्रति सरकार का विमर्श -चिंतन ही नहीं, क्रियान्वयन आवश्यक"

ashri0910ashri0910 February 8, 2023
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"बाल साहित्य के प्रति सरकार का विमर्श -चिंतन ही नहीं, क्रियान्वयन आवश्यक"



24 मार्च 2022 वैश्विक हिंदी सम्मेलन की अनुशंसा के अनुपालन में आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में " साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में बाल साहित्य की वर्तमान स्थिति " पर चर्चा- विमर्श का आयोजन हुआ" कॉन्स्टिट्यूशन क्लब ऑफ इंडिया, नई दिल्ली" परिसर में जहांँ

 विदेश एवं संसदीय कार्य राज्य मंत्री भारत सरकार श्री वी . मुरली धरण जी के मुख्य आतिथ्य में

आदरणीय" दिविक रमेश जी" हिंदी विद्वान की गरिमामय उपस्थिति में

और राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष "श्री प्रियंक कानूनगो और सदस्य सचिव सुश्री रूपाली बनर्जी सिंह" के सानिध्य में मुझे (अनुपमा श्रीवास्तव अनुश्री) को भी आमंत्रित वक्ता के रूप में

 कुछ विचार बिंदु प्रस्तुत करने का अवसर मिला ।

 प्रसंग है हमारी नई पीढ़ी का , जो देश के कर्णधार है और आईना। कल देश का भविष्य इन्हीं आईनों में दिखाई पड़ेगा।

 काल के कपाल पर भारत का भाल चमकाने के लिए यह सभी नन्हें -मुन्ने बच्चे ,नई पीढ़ी के बालक , छात्र-छात्राएंँ संस्कारित होंगे और देश को उसकी गौरवशाली धर्म -संस्कृति के अनुरूप सुंदर सटीक सही दिशा दिशा देंगे।

मगर कैसे ! जब विचार उत्कृष्ट होंगे और कर्म भी उसी अनुरूप होंगे।

 यदि मनुष्य विचार है तो साहित्य संस्कार। अच्छा साहित्य - सद साहित्य बच्चों के अंतरमन में अपनी गौरव शाली सभ्यता- संस्कृति के प्रति सम्मान के बीज डाल सके। अपने परिवार, देश और समाज के प्रति निष्ठा और ईमानदारी की उपज तैयार कर सके। सही मायनों में 'परहित सरिस धर्म नहिं भाई" उक्ति को सिद्ध कर सके। देश भक्ति की मशाल सभी के हृदय में जगा सके तो ऐसा साहित्य हर पत्र-पत्रिकाओं में इन नई पीढ़ी के बालक बालिकाओं से संवाद ही नहीं करेगा ,बल्कि उन्हें मार्गदर्शित करेगा सही जीवन शैली की ओर। इस मार्गदर्शक सदसाहित्य को पढ़ने के लिए और उससे अपने जीवन की सभी समस्याओं को समझने, हल करने, समाधान पाने के लिए तब हर बालक आतुर रहेगा। 

राष्ट्र निष्ठा का यह मंत्र अगर बाल साहित्य दे रहा है, बाल मनोविज्ञान को समझते हुए ज्ञान वर्धन और मनोरंजन के साथ, तो इस दौर में तो ऐसे बाल साहित्य की महती आवश्यकता है, जहांँ काफी हद तक निराशा ,अवसाद ,भटकाव , बिखराव के सूत्र समाज में दिखाई पड़ रहे हैं । खासतौर से बालक दिग्भ्रमित हैं। उन्हें सही मार्ग दिखाने का कार्य बाल साहित्य करेगा इसीलिए साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में बाल साहित्य का होना बहुत जरूरी है, लेकिन देखा यह भी जाता है कि बाल साहित्य वही घिसी - पिटी लकीरों पर, आलू -भालू ,कचालू, हाथी- घोड़ा- पालकी तक ही अटका है जबकि आज के दौर का बच्चा कहां से कहां पहुंच चुका है मेरी पंक्तियां हैं- कि "नन्हा समझकर हमें कमजोर न समझना, जब हम गैजेट्स चलाते हैं तो अच्छे अच्छों को भी नानी याद आती है " आज के दौर के बच्चों के मनोविज्ञान को समझते हुए उनकी जिज्ञासा उनकी प्रकृति और प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हुए जो साहित्य लिखा जाएगा वह भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय होगा और उसको अनुवादित किया जाना चाहिए।

बाल साहित्य हाशिए पर नहीं ,बल्कि साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में केंद्र पर होना आवश्यक है क्योंकि सभी बड़े साहित्यकारों ने बाल साहित्य पर कलम चलाई है अपना धर्म और अपना फर्ज निभाते हुए। उनके भावों में कहीं वह एक दूरदर्शिता और नई पीढ़ी का उज्जवल भविष्य था, जिसे साहित्य के रूप में पथ प्रदर्शक की आवश्यकता है।बाल गतिविधियांँ, बाल साहित्य हमेशा साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित किया जाना चाहिए, ताकि हम बड़े अपनी यह गर्व से कह सकें कि हमने नई पीढ़ी के प्रति अपने भूमिका का निर्वहन किया है, नई पीढ़ी को साहित्य सौंपते हुए और उन्हें संस्कारित करते हुए, क्योंकि भौतिक सुख -सुविधाओं और भोग विलास की वस्तुएंँ देने से कई गुना बेहतर है कि "हम विरासत में इन बच्चों को उत्कृष्ट साहित्य प्रदान कर जाएंँ।"

नीति - नियमों द्वारा यह अनिवार्य कर दिया जाए कि हर पत्र-पत्रिका में तीन से चार पृष्ठ बाल साहित्य व बाल गतिविधियों , बाल जिज्ञासाओं से जुड़े हुए होने चाहिए।

एक और बिंदु है अनुवादित, आयातित, अनुदित साहित्य। चूँकि भाषा संस्कृति की संवाहक है । जिस देश की भाषा में साहित्य लिखा जाता है, वह अनुवादित होकर आता है हमारे समक्ष, तो अपनी संस्कृति को भी साथ ले आता है। यही कारण है कि जब नई बाल पत्रिकाएंँ बिना सोचे- समझे अनुवादित कहानियांँ प्रकाशित करती हैं, तो सोशल मीडिया पर विवाद का विषय बन जाता है क्योंकि ऐसी कथाओं के पात्र अपने नाम के साथ - साथ कथानक में भी अपनी संस्कृति को ले आते हैं जिसे हाल ही में एक विवाद हुआ एक नई पत्रिका में प्रकाशित बाल कहानी में" बिल्ली का नाम " व्हिस्की "रखे जाने पर। सोचना यह है संपादकों को, रचनाकारों को कि हम बाल साहित्य के नाम पर कितना गुणवत्तापूर्ण , अपनी संस्कृति सभ्यता के अनुरूप ,प्रामाणिक और उत्कृष्ट साहित्य बच्चों के समक्ष रख रहे हैं! क्या आज के बच्चे उससे जुड़ सकते हैं और वे उसे अपने नजदीक पाते हैं,क्या उनके लिए लिखे गए साहित्य में उनकी सोच है, उनकी दृष्टि है उनकी सृष्टि है? यह उनका साहित्य है या अपने ही गुमान में ,अपनी ही पीढ़ी के साहित्य को बाल साहित्य बताकर प्रकाशित कर रहे हैं!

 बड़ी जिम्मेदारी है रचनाकारों और बाल पत्रिकाओं के संपादकों पर भी कि वे कहीं ऐसा साहित्य तो नहीं प्रकाशित कर रहे जो आज की पीढ़ी के बालकों के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं है दूर-दूर तक!

अगर ऐसा है तो फिर सवाल बिल्कुल सही है कि बच्चे आजकल बाल साहित्य की तरफ रुझान नहीं रखते हैं और खासतौर से हिंदी के प्रति। अगर उन्हें अपनी मानसिकता अनुरूप, अपने परिवेश ,अपनी भावनाओं के अनुरूप, जिज्ञासाओं के अनुकूल, मनोरंजन के साथ ज्ञान वर्धन करता हुआ बाल साहित्य मिलेगा तो अवश्य ही बाल साहित्य उनका मित्र बनेगा, उनसे संवाद करेगा । उनके साथ हंँसेगा-रोएगा और उनके साथ सुर में सुर मिलाएगा। तब भी उसे अपनाएँगे, उसे आत्मसात कर सकेंगे ,पढ़ेगे और गुनेगे। सीखेंगे- समझेंगे और संस्कारित बनेंगे।

बाल साहित्य की इमारत को अगर सुदृढ़ करना है ,बच्चे - बच्चे तक बाल साहित्य पहुंँचाना है तो इसकी नींव गहरी करनी होगी ताकि भविष्य में एक जानदार और मजबूत इमारत बाल साहित्य की तैयार हो सके और हर बच्चे तक बाल साहित्य पहुंँचे। इसके लिए कुछ नीति निर्देशक तत्व जरूरी हैं। कुछ नियम स्थापित किए जाना जरूरी है ।बाल साहित्य के पठन-पाठन को कहीं न कहीं अनिवार्य करना आवश्यक है क्योंकि यह बच्चे हमारे भविष्य का आधार हैं और इन्हें संस्कारित करने का आधार है, उत्कृष्ट, जीवनोपयोगी बाल साहित्य।

अब्दुल कलाम जी ने बहुत सही कहा - "कौन करेगा! मैं करूंँगा, तुम करोगे, हम सब करेंगे और करने से ही होगा, सिर्फ बोलने से नहीं।

केंद्र सरकार ही नहीं ,सभी राज्य सरकारों को अच्छे साहित्यकारों को प्रोत्साहन देना चाहिए। अच्छी पुस्तकों का प्रकाशन भी किया जाना चाहिए । जो संपादक हैं अच्छा बाल साहित्य प्रकाशित कर रहे हैं या जो संस्थाएंँ बाल गतिविधियोंँ , बाल साहित्य के प्रचार प्रसार ,संपादन कार्य में लगी हुई हैं उन्हें सरकार द्वारा अनुदान प्रदान करना जरूरी है ताकि अधिकाधिक बच्चों तक साहित्य पहुंँच सके । 

तमाम शैक्षणिक संस्थाओं, विद्यालयों और माता- पिता को बच्चों को उत्कृष्ट बाल साहित्य के पठन-पाठन को सुगम बनाते हुए, पढ़ने-लिखने हेतु प्रेरित करना चाहिए। साथ ही उत्कृष्ट साहित्य का तमाम विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो , प्रचार-प्रसार हो ताकि हमारी संस्कृति- सभ्यता का विदेश में परचम लहराए और मान बढ़े।

 साहित्य कब मठाधीशों और पदा सीनों के अधीन रहा है ! उसने तो जब हुंकार भरी है " सत्यमेव जयते" ही कहा है।

 जहांँ कुछ पत्र- पत्रिकाएंँ वयस्कों के लिए ही साहित्य प्रकाशित कर रही थीं, उन्होंने भी बाल साहित्य प्रकाशित करने की शुरुआत की है और यह कदम प्रशंसनीय और स्वागत योग्य है- जैसे प्रसिद्ध पत्रिका वीणा में संपादक ने अब बाल साहित्य को भी प्रमुखता देना आरंभ किया है। यह बात प्रेरक है । पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अगर बच्चे प्रकृति से, प्रेम ,संवेदना, परोपकार ,देश प्रेम से जुड़ें, तो बेहतरीन है। साहित्यिक पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित बाल साहित्य "लाइट हाउस" की तरह है जो अंधकार की गर्त से निकालकर जीवन में उजास और संपूर्णता प्रदान करता है हमेशा से साहित्य ने अपनी महती भूमिका का समाज में निर्वहन किया है और सदा करता रहेगा। आवश्यकता इस बात की है कि केंद्र और राज्य सरकार इन बिंदुओं पर अपना ध्यान केंद्रित करें और क्रियान्वयन करें। 

@अनुपमा अनुश्री

साहित्यकार ,कवयित्री ,प्रखर चिंतक, समाजसेवी, भोपाल।

अध्यक्ष- आरंभ चैरिटेबल फाउंडेशन ।

ई मेल- ashri0910@gmail.com

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