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आज भूले जनाब ने भी ख़ैरियत पूछी है!
क्या कहें? कि सकूँ आया उन्हें देख कर!
या बयां करें वो नाराज़गी, जो उनसे थी?
बयां कर दें क्या उन्हें वो, उनका इंतेज़ार,
जो हमे मजिसम खा गया?
क्या कहें? कैसे बिताये हमने वो अरसे,
क्या कहें, हम किस कदर बेचैन रहे!
क्या माफ़ करदें उन्हें, कह दें कि सब ठीक है,
कह दें हम भी ख़ुश हैं यहाँ!? कह दें कि,
ज़िन्दगी की चकाचौंध, हमें रास आ गयी है,
कह दें, कि हमें भी कुछ याद नहीं, माज़ी वक़्त!
ठीक वैसे ही जैसे उन्हें, आज याद आये हम,
वो भी मेरे यादों के बक्से में कहीं दबे हुए थे।
कैसे यह भी कहें कि खुद को हमने कैसे समझाया था,
कैसे कह दें कि सही इंसान, गलत बस वक़्त है,
यही कह के खुद को हमने यूँ मनाया था!
कैसे कह दें कि हर बार वक़्त को गुनहगार बता कर,
हमने महफ़िल से उन्हें बरी करवाया था!
सकूं ये है कि उन्हें, चेहरा पढ़ना अब तक नही आया,
हाँ! शायद चेहरा ही उन्हें किसी का मन को न भाया!
पढ़ लेते होंगे शायद चेहरे भी वो, एनवई मासूम बनते हैं,
उस मासूम चहेरे के अंदर कई चेहरे लेकर साथ चलते हैं!
तो अब बस ठीक हैं,
हम भी कह देते हैं,
ख़ुश भी हैं कह कर,
फिर से सब सह लेते हैं!
अच्छा! ये सब छोड़िये,
मासूमियत-ए- इश्क़ देखिये!
जनाब को देखते ही,
नाराज़गी "है" से "थी" हो गयी!
कमबख़्त ये नाराज़गी भी, बेवफ़ा निकली!
हाँ?
हाँ! सब बिल्कुल ठीक है।
-त्रिशा।
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