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→सीरीज - बस यूँ ही
→भाग - 02
उफ्फ.. कितना काॅनफ्लिक्ट है न!
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हर रोज एक ख़्वाब बुना जाता है, पता नहीं कब, कैसे और क्यों? किसे पड़ी है। बस इन्ही ख्वाबों की बुनकरी ही तो जीवन का पर्याय है। रोजमर्रा की चाहतों का बोझा लिये घूम रहे हैं कभी किसी फोर लेन या किसी मुहल्ले की गली में।
एक अजीब सा रीदम् बजता रहता है दिलो - दिमाग में, कुछ पाने खोने के हिसाब सा। यही रोकने के लिए खो जाना चाहता हूँ किसी आसामी जादू के हाथों में या बन जाना चाहता हूं पीयूष मिश्रा का वह खत जो "रेशम गली के - दूजे कूचे के - चौथे मकां में" पहुँचता तो हो , पर मिल न पाता हो।
खैर, पहुंचना तो होगा ही कहीं न कहीं ,यह सोचकर कहीं नहीं पहुंचना चाहता हूं । कहानियों में सुन रखा है ,कहीं पहुँचने से पहले की तैयारी के बारे में की कैसे साथ ले जाने वाली चीजें चुनी जाती हैं । मुझे चुनना हो तो मैं ये सारे ख़्वाब छोड़ दूँ। बस कभी उजले आसमां में कन्नी खाती पतंगों के झटके गिनूँ तो किसी के शाल में बर्फीले झाग सा चिपक जाऊँ। टूटते तारों के लिये मरसिया पढूं ना की मन्नतों के बोझ से और तोड़ दूँ।
अगर - मगर भूल कर एक ऐसी डगर पर निकल पड़ूँ की सफर कहानियों व दिलचस्प किस्सों से भरा हो और लोग कहानियाँ लिखते हों, दिखाते या सुनाते नहीं। कहानियाँ लिख कर मिटा देना मेरी फ़ितरत है। मुझे पात्रों का गला घोटना नहीं आता। इसलिए सिर्फ जब तक लिखता हूँ मानों उनके गले को कसकर पकड़ा हुआ हूँ , पर डर है की सबको सुनाने पर सबने थोड़ा - थोड़ा भी जोर दिया तो वे चल बसेंगे।
उफ्फ.. कितना काॅनफ्लिक्ट है न!
कुछ ना ले जाने के चक्कर में मैंने फिर इतने सारे ख्वाबों की जमात खड़ी कर दी। यही तो एरर पॉइंट है। इसको भी कर्रेक्ट करना एक ख़्वाब है पर इतना भी बड़ा नहीं जितना की किसी वीकेंड पर जी भर कर सोना।
~ अनुराग अंकुर
→सीरीज - बस यूँ ही
→भाग - 02
उफ्फ.. कितना काॅनफ्लिक्ट है न!
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हर रोज एक ख़्वाब बुना जाता है, पता नहीं कब, कैसे और क्यों? किसे पड़ी है। बस इन्ही ख्वाबों की बुनकरी ही तो जीवन का पर्याय है। रोजमर्रा की चाहतों का बोझा लिये घूम रहे हैं कभी किसी फोर लेन या किसी मुहल्ले की गली में।
एक अजीब सा रीदम् बजता रहता है दिलो - दिमाग में, कुछ पाने खोने के हिसाब सा। यही रोकने के लिए खो जाना चाहता हूँ किसी आसामी जादू के हाथों में या बन जाना चाहता हूं पीयूष मिश्रा का वह खत जो "रेशम गली के - दूजे कूचे के - चौथे मकां में" पहुँचता तो हो , पर मिल न पाता हो।
खैर, पहुंचना तो होगा ही कहीं न कहीं ,यह सोचकर कहीं नहीं पहुंचना चाहता हूं । कहानियों में सुन रखा है ,कहीं पहुँचने से पहले की तैयारी के बारे में की कैसे साथ ले जाने वाली चीजें चुनी जाती हैं । मुझे चुनना हो तो मैं ये सारे ख़्वाब छोड़ दूँ। बस कभी उजले आसमां में कन्नी खाती पतंगों के झटके गिनूँ तो किसी के शाल में बर्फीले झाग सा चिपक जाऊँ। टूटते तारों के लिये मरसिया पढूं ना की मन्नतों के बोझ से और तोड़ दूँ।
अगर - मगर भूल कर एक ऐसी डगर पर निकल पड़ूँ की सफर कहानियों व दिलचस्प किस्सों से भरा हो और लोग कहानियाँ लिखते हों, दिखाते या सुनाते नहीं। कहानियाँ लिख कर मिटा देना मेरी फ़ितरत है। मुझे पात्रों का गला घोटना नहीं आता। इसलिए सिर्फ जब तक लिखता हूँ मानों उनके गले को कसकर पकड़ा हुआ हूँ , पर डर है की सबको सुनाने पर सबने थोड़ा - थोड़ा भी जोर दिया तो वे चल बसेंगे।
उफ्फ.. कितना काॅनफ्लिक्ट है न!
कुछ ना ले जाने के चक्कर में मैंने फिर इतने सारे ख्वाबों की जमात खड़ी कर दी। यही तो एरर पॉइंट है। इसको भी कर्रेक्ट करना एक ख़्वाब है पर इतना भी बड़ा नहीं जितना की किसी वीकेंड पर जी भर कर सोना।
~ अनुराग अंकुर
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