
श्रृंगार से यथार्थ तक - काव्य संग्रह | यही सत्य है....

श्रृंगार से यथार्थ तक : काव्य संग्रह, प्रदीप सेठ सलिल की कविताओं की ऐसी किताब है जिसमें जीवन के हर पहलू के बारे में कविता लिखी गयी है! लेखक को जिंदगी का एक अच्छा अनुभव है और उन्होंने लगभग हर पड़ाव को नजदीक से देखा है, किताब में सलिल लिखते हैं: अनुभूति की कोख से जायी अभिव्यक्ति की पगडंडियॉं एक ओर सुहाने इंद्रधनुषी रास्तों से जुड़ती है तो दूसरी ओर यथार्थ की कठोर व् गर्म जमीन को अंगीकार करती है!
यही सत्य है, की प्रत्येक मनुष्य मौलिक रूप से श्रृंगार के आकाश तले ही गतिशील है फिर यह संवेदात्मक हलचल किसी से मिलने की कोशिश हो, किसी के साथ रहने की जिज्ञासा हो या किसी के विछोह की अंतरंग वेदना हो! यही गतिशील रचनात्मकता के लिए खिड़की खोलने का ज़रिया बनती है!
श्रृंगार की प्रत्येक धरा की यात्रा, जीवन की नदी में नितांत अकेले ही आगे नहीं बढ़ती बल्कि वह तो जिंदगी में कभी चट्टान सी कठोर सच्चाई से टकराती है तो कभी सामाजिक आर्थिक विषमता के रेगिस्तान से होकर गुज़रती है!
तय है की दोनों ही स्थितियाँ साहित्य व् कला के उपजाऊ धरातल को उर्वरक प्रदान करती है तथा मानवीय सरकारों को अलंकृत करती हुई पल्ल्वित व् पुष्पित होने की आशीष देती है! कविताओं की रचनात्मकता और गहराई को समझने के लिए किताब पढ़ना आवश्यक है!
सलिल जी की कविताएँ आप कविशाला पर भी पढ़ सकते है.
उनकी एक कविता:
"तरक्की के साए में"
सुनो
जिन्हें
दाना-पानी देकर पाला था
अंकुर से दरख़्त में ढाला था,
वो पक्षी-
मुंडेर तक आते हैं
रस्म-अदाई कर जाते हैं।
आकाश संपन्न हो गया है
कोमल चांद कहीं खो गया है,
इधर
मैं ठीक हूं
देखो
तुम चिंता न करना,
यहाँ
समय के इस पार
आँखें खोजती हैं
उसे
जो आसपास है
परछाईं का आभास है।
प्रश्न उछलते हैं
इश्तहारों में, अखबारों में
खबरों में नगरों में,
तरक्की के बीच,
‘तरक्की के बीच’
बंधता है कोई
नीति में
अपने दायरे की परिमिति में,
सुनो
मैं इस गाँव अच्छा हूँ--लोग कहते हैं,
तुम कैसी हो लिखना
हो सके तो
सदा ही
मुझमें दिखना।
[प्रदीप सेठ सलिल]
किताब में कविताओं की रचनात्मकता और गहराई को समझने के लिए किताब पढ़ना आवश्यक है!!
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