
वो मई-जून की ठंड याद होगी तुमको भी,
जब हमने एक ही रजाई में कई सुबहें साथ साथ जाग कर बिताई थी।
मै तुम्हारा चेहरा देख कर आँखे खोलता था,
और तुम मेरा चेहरा देख कर कम्बल से बाहर आते थे।।
याद होगा तुम्हें भी....
उन सर्द रातों में ...
उन सर्द रातों में तुम रजाई से अपना चेहरा कुछ ऐसे बाहर निकालते थे,
जैसे एक छोटा कछुआ पहली बार अपने खोल से सर निकाल कर दुनियाँ देखता है
और बसंत की बारिश की तरह मुस्कुराते थे तुम
याद होगा तुम्हें...
तुम्हारे माथे पर एक केसरिया चुंबन देकर
तुम्हें सुप्रभात बोलता था मैं,
और तुम मेरी बनाई गुलाबी कॉफी के साथ दिन की शुरुआत करते थे,
और मेरे गले मे दोनो हाथ डालकर तुम नींद को विदा देते थे।
याद होगा तुम्हें....
उन सर्द सुबहों में तुम ठंडी हथेलियों को मेरे गालो पर सेकते थे।
और हर रात मेरे सीने पे अपना हाथ रख कर सोते थे,
और माथे पर थपकी देकर मैं तुम्हारी थकान मिटाता था।
याद होगा तुम्हें....
लेकिन कम्बख्त ये दिसंबर की गर्मी आयी
और मिटा दिया उसने हमारे सर्द ख्वाबों को
और नदी के दो किनारों की तरह
मैं इस पार तुम उस पार
इस इन्तजार में कि कल कोई पगडंडी हमे फिर मई जून की ठंड मे ले जायेगी।।
- अंकित कुशवाहा 'नि:शब्द'
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