
क्या कुसूर है मेरा
मैं नासमझ बच्ची हूँ या लड़की हूँ।
अभी तो ढंग से चलना भी नहीं सीखा था
के इन दरिंदों ने दौड़ा दिया मुझे
खुद को बचाने को मैं भागी भी, मैं चीखी भी
पर मेरी चीख मेरे नन्हे कदमो की
तरह दूर तक ना जा पाई
जकड़ लिया हैवनियत के हाथों ने मेरे बदन को
नादाँ मैं समझ नहीं पाई
हयात की उस झलक को
बस सोचती मैं यही के
क्या कुसूर है मेरा।
मैं घर जाने की भीख माँग रही थी
वो चौकलेट की लालच से
मेरे बदन से कपड़े हटा रहे थे
और मेरी आँखो से आसू निरन्तर
उनके हाथों पर बहे जा रहे थे
फिर भी मैं इरादे उनके समझ नहीं पा रही थी
नादाँ मैं ज़िन्दगी के भयनकर रूप से
वाकिफ नहीं हो पा रही थी
बहते खून की पीड़ा मैं समझ नहीं पा रही थी
दिमाग मैं बस एक बात आ रही थी
आखिर ऐसा क्या कुसूर है मेरा।
मैं दर्द से चीख रही थी रो के बिलख रही थी
पर भूख उन दरिंदों की नहीं बुझ रही थी
आसुओं का बढता सैलाब
आँखो को बंद कर ने लगा
दर्द से कराहती ज़ुबाँ भी शान्त पड़ने लगी
बंद आँखो मे झलक जब माँ की दिखने लगी
बहुत बातें जो माँ से कहनी है
सब आपस मे उलझनें लगी
नहीं जुटा पा रही थी हिम्मत मैं बदन हिलाने की
और उस पल मे सांसें भी थमने लगी थी
तब फिर भी वो बेजान सी मैं
उनका शिकार बने जा रही थी
उस वक्त बस एक सवाल लेकर
खुद मे ही गुम हो रही थी मैं
अभी तो ढंग से चलना भी नहीं सीखा था
दुनिया तो दूर की बात है,
अभी तो खुद को भी आईने में नहीं देखा था
फिर आखिर क्या कुसूर था मेरा ?
मैं नादाँ बच्ची थी, या एक लड़की थी??
- अंकिता सिंह चौहान
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