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उड़ान


हमसे कहा गया की,

तुम उड़ना चाहती हो तो उड़ सकती हो,

मगर उन पंछियों की तरह नहीं,

 जो खुले आसमान में उन ऊंचाइयों तक जा सके

 जहां तक वो जाना चाहें।


बल्कि इन पतंगों की तरह 

जिसके पीछे एक डोर बंधी हो

और वो वहीं तक उड़ सकती हैं,

 जहां तक उन्हे ढील दी जा रही है।


की हमने भी चुना वो पतंग होना।।

क्यूंकि सदियों से बंधे उस पिंजड़े की चारदीवारी से,

कहीं बेहतर समझा हमने उस डोर से बंधा होना।

जहां थोड़ी ऊंचाई से देखने का मौका तो मिले,

दूर किसी बंधी पतंग से मिलने का मौका तो मिले।

ताकी मिल सकू उससे और कह सकूं,

 की आओ साथ होजाते हैं।

 इस डोर से पीछा छुड़ाते हैं।

और उड़ चलते हैं खुले आसमान में उन ऊंचाइयों तक,

जहां तक हम उड़ना चाहते हैं।

 जहां तक हम उड़ना चाहते है।।

 

 ~अंजली मिश्रा

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