
पिछले दिनों स्वतंत्रता दिवस की तैयारियों के चलते कुछ बच्चों से मैंने उनके सबसे पसंदीदा और प्रेरित करने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम पूछे। आश्चर्य की बात यह थी, कि एक ने भी किसी महिला स्वतंत्रता सेनानी का नाम नहीं लिया। क्या उन्हें पता ही नहीं था? और अगर नहीं पता, तो आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी हम क्या पूर्ण रूप से स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले प्रत्येक बलिदानी के प्रति आदरांजलि देने योग्य भी हैं?आज 15 अगस्त को हमारा राष्ट्र, हमेशा की तरह, पारंपरिक आधिकारिक उत्सव मनाएगा। लेकिन सच्चाई यह है वर्तमान युवा पीढ़ी को आजादी का शायद उतना आभास नहीं है। मात्र वे लोग जिन्होंने ब्रिटिश झंडे को उतरते और भारतीय तिरंगे को उसकी जगह लेते देखा – उनके लिए स्वाधीनता का महत्व आज भी उतना ही है। सत्य तो यह है कि इसमें महिलाओं का भी अप्रतिम योगदान रहा है। भारत ने औपनिवेशिक शासन की बेड़ियों से खुद को मुक्त करने के लिए कैसे संघर्ष किया, इसकी कहानियां आज भी हमारे दिलों में गूंजती हैं। 1857 के विद्रोह से लेकर 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति तक लाखों स्वतंत्रता सेनानियों ने देश को ब्रिटिश तानाशाही से मुक्त कराने के लिए संघर्ष किया।
जिस समय महात्मा गांधी भारतीयों को औपनिवेशिक शासन का शांतिपूर्ण विरोध करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे और स्वतंत्रता सेनानी अंग्रेजों को पीछे हटने के लिए मजबूर करने की कोशिश कर रहे थे, उस समय कई भारतीय महिलाएं चुपचाप स्वतंत्रता आंदोलन को भीतर से आकार दे रही थीं। जातिवाद को समाप्त करने के आह्वान से लेकर शराबबंदी तक; वे अत्याचारी शासन को समाप्त करने के लिए साम्राज्यवादियों से लड़ने की चुनौती ले रही थीं। कुछ ने अपनी कविताओं से 'स्वदेशी' आंदोलन का आह्वान किया, जबकि अन्य ने सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देने के लिए एक खंडित राष्ट्र में समुदायों का निर्माण किया। निःसंदेह यह लड़ाई महिलाओं की भागीदारी के बिना अधूरी होती। आइए हम इस स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर कुछ महिला स्वतंत्रता सेनानियों के समृद्ध और अक्सर भूले-बिसरे इतिहास का स्मरण करें।
मातंगिनी हाजरा: ‘गांधी बूढी’ के नाम से प्रसिद्ध मातंगिनी ने भारत छोड़ो आंदोलन और असहयोग आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। एक जुलूस के दौरान उन्हें तीन बार गोली लगी, किन्तु फिर भी वे भारतीय ध्वज के साथ आन्दोलन का नेतृत्व ‘वन्दे मातरम्’ के उद्घोष के साथ करती रहीं। कोलकाता में पहली बार 1977 में एक महिला की प्रतिमा लगायी गयी, और वह प्रतिमा मातंगिनी की थी। प्रतिमा उस स्थान पर स्थापित की गई है जहां तामलुक में उनकी हत्या की गई थी। कोलकाता में हाजरा रोड भी उन्हीं के नाम पर है।
कनकलता बरुआ: ‘बीरबाला’ कनकलता असम की एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थीं। उन्होंने 1942 में बरंगाबाड़ी में भारत छोड़ो आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई और हाथ में राष्ट्रीय ध्वज लिए महिला स्वयंसेवकों की पंक्ति के शीर्ष पर खड़ी रहीं। उन्होंने "ब्रिटिश साम्राज्यवादियों वापस जाओ" के नारे लगाकर ब्रिटिश-प्रभुत्व वाले गोहपुर पुलिस स्टेशन पर झंडा फहराने का लक्ष्य रखा था, जो अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था। उन्होंने समझाने का प्रयास किया कि उनके इरादे नेक थे, किन्तु ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें और उनके साथियों को गोली मार दी और मात्र 18 साल की उम्र में उन्होंने देश के लिए अपने प्राण त्याग दिए।
मूलमति: शायद हम इन्हें इस नाम से जानते भी न हों, किन्तु उन्होंने उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में राम प्रसाद बिस्मिल की मां के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राम प्रसाद 1918 के प्रसिद्ध मैनपुरी षडयंत्र मामले और 1925 के काकोरी षडयंत्र में शामिल क्रांतिकारी थे। 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में उन्हें गिरफ्तार कर फांसी पर लटका दिया गया था। मूलमति एक सीधी-सादी महिला थीं और फांसी से पहले अपने बेटे को देखने गोरखपुर जेल भी गई थी। राम प्रसाद अपनी माँ को देखकर रो पड़े, किन्तु वे अडिग रहीं। वह अपनी प्रतिक्रिया पर दृढ़ थी और उन्होंने कहा कि उन्हें रामप्रसाद पर गर्व है। एक सार्वजनिक सभा में एक भाषण में उनकी मृत्यु के बाद, उन्होंने अपने दूसरे बेटे का हाथ उठाया और उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन की पेशकश की। स्वतंत्रता संग्राम में उनके अटूट समर्थन और विश्वास के बिना, राम प्रसाद बिस्मिल के पास अपने चुने हुए रास्ते पर चलने का संकल्प नहीं हो सकता था। इसका सम्पूर्ण श्रेय मूलमति को ही जाता है।
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